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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
परमार्थ शक्य नहीं तो व्यवहार को ही जान
जिणधम्मं दुण्णेयं, अइसय णाणीहिं णज्जइ सम्मं । तह विहु समयट्टिइए, ववहारणयेण णायव्वं । । १३७ । । अर्थः- यथार्थ जिनधर्म तो ऐसा दुर्गम्य है कि उसे बड़े-बड़े ज्ञानी भी कष्ट से ही जान सकते हैं तो भी मत की स्थिरता के लिये वह व्यवहार नय से जानने योग्य है ।।
भावार्थ:- निश्चयनय से मोह रहित आत्मा की परिणति रूप शुद्ध जिनधर्म तो बड़े-बड़े ज्ञानी पुरुषों द्वारा जानना भी कठिन है, उसका लाभ होना तो दुर्लभ ही है परन्तु सत्यार्थ देव - शास्त्र - गुरु का श्रद्धान रूप जो व्यवहार धर्म है उसे तो अवश्य ही जानना चाहिये । यदि व्यवहार से जिनमत की स्थिरता बनी रहेगी तो परम्परा से कभी न कभी निश्चय धर्म की प्राप्ति भी हो जायेगी और यदि व्यवहार धर्म भी नहीं रहेगा तो पाप प्रवृत्ति होने से जीव निगोदादि नीच गति में चला जायेगा जहाँ धर्म की वार्ता भी दुर्लभ है इसलिये यदि परमार्थ जानने की शक्ति न हो तो व्यवहार जानना ही भला है - ऐसा जानना | | १३७ ।।
व्यवहार परमार्थ को साधने वाला है
जह्मा जिणेहिं भणियं, सुय ववहार विसोहयं तस्स । जायइ विसुद्ध बोही, जिण आणाराह गत्ताओ । । १३८ ।।
अर्थ:- क्योंकि जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया जो शास्त्र का
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भव्य जीव