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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अब आगे सुगुरु की परीक्षा करने का उपाय बताते गुरु को परीक्षा करके जान
णियमइ अणुसारेण, ववहारणयेण समय सुद्धीए । कालक्खेत्तणुमाणे, परिक्खओ जाणिओ सुगुरु । । १३४ । ।
अर्थः- अपनी बुद्धि के अनुसार, व्यवहार नय के द्वारा, सिद्धान्त की शुद्धिपूर्वक, काल तथा क्षेत्र के अनुमान से परीक्षा करके सुगुरु को जानना चाहिये । ।
भावार्थः- रत्नत्रय का साधकपना साधु का लक्षण है सो निश्चय दृष्टि से अंतरंग तो दिखाई नहीं देता परन्तु व्यवहार नय से सिद्धान्त में जो महाव्रतादि अट्ठाईस मूलगुण रूप आचरण बताया है उससे परीक्षा करके जानना चाहिये कि वह इनमें है या नहीं ? यदि वे अट्ठाईस मूलगुण उनमें हों तो वे गुरु हैं और यदि उनमें न हों तो कुगुरु हैं तथा इस बात का भी विचार करना चाहिये कि ऐसे क्षेत्र - काल में गुरुओं का आचरण हो सकता है और ऐसे क्षेत्र - काल में नहीं। ऐसा विचारकर फिर गुरुओं के योग्य क्षेत्र - काल में पांच महाव्रतादि अट्ठाईस मूलगुण जिनमें दिखाई दें वे गुरु हैं और जो गुरु के योग्य क्षेत्र - काल न हो वहाँ स्थित हों तथा पाँच महाव्रतादि जिनमें पाये न जाएं और फिर भी अपने को गुरु माने तो वे कुगुरु हैं - ऐसा जानना । ।१३४ । ।
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भव्य जीव