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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
माने तो उसे किसी फल की प्राप्ति नहीं होती, उल्टे दण्ड ही मिलता है इसी प्रकार हे भाई! यदि तुम जिनेन्द्र भगवान की भक्ति-पूजा करते हो तो उनकी आज्ञा को प्रमाण करो । भगवान की वाणी में स्थान-स्थान पर कहा गया है कि 'जो राग-द्वेष सहित क्षेत्रपाल आदि हैं वे कुदेव हैं और परिग्रहधारी विषयाभिलाषी आदि हैं वे कुगुरु हैं उन्हें सुदेव व सुगुरु नहीं मानो।' यदि तुम भगवान की आज्ञा को सत्य मानकर उसको प्रमाण नहीं करोगे तो उनकी आराधना का फल जो मोक्षमार्ग की प्राप्ति होना है वह तुम्हें कदापि नहीं मिलेगा | | १३२ ।।
आज भी जो सम्यक्त्व में अडिग हैं वे धन्य हैं
दूसम दण्डे लोए, दुक्खं सिट्टम्मि दुट्ठ उदयम्मि । धण्णाण जाण ण चलइ, सम्मत्तं ताण पणमामि । । १३३ ।। अर्थ:- जिसमें श्रेष्ठ पुरुष जैनीजन तो दुःखी हैं और दुष्ट पुरुष अभ्युदय वाले हैं ऐसे इस पंचम काल के दण्ड सहित लोक में वे भाग्यवान जीव धन्य हैं जिनका सम्यक्त्व चलायमान नहीं होता, उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ ।।
भावार्थ::- इस निकृष्ट काल में सम्यक्त्व बिगड़ने के अनेक कारण बन रहे हैं तो भी जो सम्यक्त्व से चलायमान नहीं होते वे पुरुष धन्य हैं ।। १३३ ।।
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भव्य जीव