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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्रद्धा बिना जिनदेव का वंदन - पूजन निष्फल
जं तं वंदसि पुज्जसि, वयणं हीलेसि तस्स राएण । ता कह वंदसि पुज्जसि, जिणवायट्टियं पि णो मुणसि ।।१३१।।
अर्थः- जिन जिनेन्द्र देव को तुम प्रीतिपूर्वक वंदते हो, पूजते हो उन्हीं के वचनों की अवहेलना करते हो अर्थात् उन जिनेन्द्रदेव के वचनों में कहे हुए को तुम मानते नहीं हो फिर उन्हें तुम क्या वंदते - पूजते हो ! ।। भावार्थ:- कई अज्ञानी बाहर में तो जिनेन्द्र भगवान की वंदना - पूजा बहुत करते हैं परन्तु उनके वचनों को मानते ही नहीं हैं तो उनका वंदना - पूजा आदि करना कार्यकारी नहीं है । । १३१ । ।
पहिले जिनवचनों को मानो
लोए वि इमं सुणियं, जं आराहिज्जं तं ण कोविज्जो । मणिज्ज तस्स वयणं, जइ इच्छसि इच्छियं काओ । । १३२ ।।
अर्थः- लोक में भी ऐसा सुनने में आता है कि जो जिसकी आराधना करता है, सेवा करता है वह उसे कुपित नहीं करता सो यदि तुम भी वांछित कार्य की सिद्धि चाहते हो तो उन जिनेन्द्रदेव के वचनों को पहिले मानो ।।
भावार्थः- यह बात तो जगत में भी प्रसिद्ध है कि जो राजादि की सेवा करके उनसे किसी फल को चाहता है तो उसे उनकी आज्ञानुसार ही चलना उचित है और यदि उनकी सेवा तो करे और आज्ञा नहीं
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भव्य जीव