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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
उनमें गुरुपने के गुण नहीं होते, ऐसे गुरु ज्ञानी पुरुषों के हृदय में नहीं रुचते और कई गुरु अदृष्ट हैं - देखने में नहीं आते हैं तो भी तत्त्वज्ञानियों के हृदय में रमते हैं, ज्ञानी उनका परोक्ष स्मरण करते हैं जैसे जिन हैं वल्लभ अर्थात् इष्ट जिनके ऐसे गणधरादि आज प्रत्यक्ष नहीं हैं तो भी ज्ञानियों के हृदय में रमते हैं' । ।१२६ । ।
आगे कोई कहता है कि ‘हम तो कुगुरुओं को ही सुगुरु के समान पूजेंगे, गुणों की परीक्षा से हमें क्या प्रयोजन है !' उसका निषेध करते हैं :कुगुरु की सुगुरु से तुलना मत करो
अइया अइ पाविट्ठा, सुद्धगुरु जिणवरिंद तुल्लंति । जो इह एवं मण्णइ, सो विमुहो सुद्ध धम्मस्स । ।१३० ।।
अर्थः- इस काल में भी जो जीव अति पापिष्ठ और परिग्रह के धारी कुगुरुओं की शुद्ध गुरु या जिनराज से तुलना करता है और ऐसा मानता है कि पापी कुगुरु एवं शुद्ध सुगुरु समान हैं वह जीव शुद्धधर्म से विमुख है ॥
भावार्थ:- जिसके सुगुरु और कुगुरु में विशेषता नहीं है वह मिथ्यादृष्टि है । ।१३० । ।
१. टि० - सागर प्रति में अर्थ की इन अन्तिम दो पंक्तियों के स्थान पर ये पंक्तियाँ हैं:'और कोई गुरु ऐसे हैं जो अदृष्ट हैं - देखने में नहीं आते हैं तो भी तत्त्वज्ञानी पुरुषों के हृदय में जिनवल्लभ के समान रमते हैं। उन्हें जैसे जिनेन्द्र भगवान प्रिय हैं उसी प्रकार सुगुरु भी प्रिय हैं। ज्ञानीजन उनका परोक्ष स्मरण करते हैं । जिस प्रकार गणधर आदि आज प्रत्यक्ष नहीं हैं तो भी ज्ञानीजनों के हृदय में वे रमते हैं उसी प्रकार जिनवल्लभ सुगुरु रमते हैं ।
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भव्य जीव