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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अर्थः- जिनधर्म का आचरण करना, उसका साधन करना
और उसकी प्रभावना करना-ये सब तो दूर ही रहो, एक जिनधर्म का श्रद्धान करना ही तीव्र दुःखों का नाश करता है। इसका
भावार्थ:- व्रतादि का अनुष्ठानादि तो दूर ही रहो, एक जिनधर्म के । दृढ़ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व के ही होने से नरकादि दुःखों का अभाव हो जाता है इस कारण जिनधर्म धन्य है ।।१२७ ।।
आगे जिनसे धर्म की प्राप्ति होती है ऐसे श्रीगुरु के संगम की भावना भाते हैं :
___ सुगुरु से धर्म श्रवण की भावना कइया होही दिवसो, जइया सुगुरूण पायमूलम्मि।
उस्सूत्त लेस विसलव, रहिऊण सुणेसु जिणधम।।१२८।। __ अर्थः- अहो ! वह मंगल दिवस कब आयेगा कि जब मैं सुगुरु के पादमूल में उनके चरणों के समीप बैठकर जिनधर्म को सुनूँगा ! कैसा होकर सुनूँगा? उत्सूत्र के लेश अर्थात् अंश रूपी विषकण से रहित होकर सुनूँगा ।।१२८ ।।
तत्त्वज्ञ को अदृष्ट भी ज्ञानी गुरु प्रिय हैं दिट्ठा वि केवि गुरुणो, हियए ण रमंति मुणिय तत्ताणं। केवि पुण अदिट्ठा, चिय रमति जिणवल्लहो जेम।।१२६ ।।
अर्थः- कितने ही गुरु तो ऐसे हैं जो देखे जाते हुए भी तत्त्वज्ञानियों ||| अनार के हृदय में नहीं रमते अर्थात् वे लोक में तो गुरु कहलाते हैं परन्तु भारत
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