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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत GE भव्य जीव अर्थः- बहुत मत कहो ! मत कहो !! क्योंकि जो जीव व श्री नेमिचंद जी / चिकने कर्मों से बँधे हुए हैं उन सबके लिए हितोपदेश है सो महा दोष रूप है।। भावार्थ:- जिन जीवों के मिथ्यात्व का तीव्र उदय है उन्हें बारंबार उपदेश देने से भी किसी साध्य की सिद्धि नहीं है क्योंकि वे तो उल्टे विपरीत ही परिणमते हैं। ऐसा वस्तु का स्वरूप जानकर विद्वानों को मध्यस्थ ही रहना योग्य है ।।१२५ ।। अशुद्ध हृदयी को उपदेश देना वृथा है हिययम्मि जे कुसुद्धा, ते किं बुझंति धम्म-वयणेहिं। ता ताण कए गुणिणो, णिरत्थयं दमहि अप्पाणं ।।१२६ ।। अर्थ:- जो जीव हृदय से अशुद्ध हैं-मिथ्या भावों से मलिन हैं वे धर्म वचनों से क्या समझेंगे अर्थात् कुछ नहीं समझेंगे इसलिये उनको समझाने के लिये जो गुणवान प्रयत्न करता है वह वृथा ही अपनी आत्मा का दमन करता है अर्थात् उसे कष्ट देता है।। भावार्थ:- विपरीत जीवों को उपदेश देने में कुछ भी सार नहीं है अतः उनके प्रति मध्यस्थ रहना ही उचित है-ऐसा जानना ।।१२६ ।। जिनधर्म के श्रद्धान से तीव्र दुःखों का नाश दूरे करणं दूरं, पि साहणं तह पभावणा दूरे। जिणधम्म सद्दहाणं, तिव्वा दुक्खई पिट्ठवई ।।१२७।।
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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