________________
श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
उत्सूत्रभाषी का भयानक संसार वन
में भ्रमण
जं वीरजिणस्स जिओ, मरीइ उस्सूत्त सायर कोडाकोडिं, हिंडिउ अइ भीम ता जइ इमं पि वयणं, वारं वारं दोसेण अवगणित्ता, उस्सुत्तवयाई ताणं कह जिणधम्मं, कह णाणं कह महाण वेरग्गं कूडाभिमाण पंडिय, णडिआ वूडंति णरयम्मि । । १२४ ।।
लेस - देसणओ । भवरणे । । १२२ । । सुणंति समयम्मि । सेवंति । ।१२३ ।।
अर्थः- महावीर स्वामी का जीव मारीचि के भव में जिनसूत्र के वचनों का उल्लंघन कर थोड़ा सा उपदेश देने के कारण अति भयानक भव-वन में कोड़ाकोड़ी सागर तक भटकता रहा सो शास्त्र के ऐसे वचनों को बारंबार सुनने पर भी दोषों को नहीं गिनकर जो मिथ्यासूत्र के वचनों का सेवन करता है वह जिनधर्मी कैसे हो सकता है और उसे सम्यग्ज्ञान भी कैसे हो सकता है तथा उत्तम वैराग्य भी कैसे हो सकता है ! ऐसे उत्सूत्रभाषी जीव मिथ्या अभिमानवश अपने को पंडित मानते हुए नरक डूब जाते हैं ।।
भावार्थ:- जो जीव जिनाज्ञा को भंग करके अपनी विद्वत्ता द्वारा अन्यथा उपदेश करते हैं वे जिनधर्मी नहीं हैं। वे तो मिथ्यात्वादि के द्वारा नरक - निगोदादि नीच गति ही के पात्र हैं । ।१२२ - १२४ ।।
७२
तीव्र मिथ्यात्वी को हितोपदेश भी महा दोष रूप है। मा मा जंपह बहुअं, जे बद्धा चिक्कणेहिं कम्मेहिं । सव्वेसिं तेसिं जइ, हिय उवएसो महादोसो । । १२५ ।।
भव्य जीव