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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भव्य जीव
हा भावार्थ:- जो जीव शक्तिहीन हैं एवं मोही हैं वे ही उदरसा श्री नेमिचंद जी भरने के लिये पाप रूप व्यापारों में रचते-पचते हैं, जो
शक्तिवान हैं वे उनमें नहीं रचते । ।१२० ।।
आगे उदर भरने के लिये पापारंभ करने वाले तो अधम हैं ही परन्तु उनसे भी अतिशय अधम उत्सूत्र बोलने वाले हैं, उनकी निंदा करते हैं :
उत्सूत्रभाषी के पंडितपने को धिक्कार हो तइयाहमाण अहमा, कारणरहिआ अणाण गव्वेण।
जे जपंति उसूत्तं, तेसिं धिद्धित्थु पंडित्ते।।१२१।। अर्थ:- जो उत्सूत्रभाषी जीव बिना कारण ही अज्ञान के गर्व से सूत्रों का उल्लंघन करके जिनवाणी के विरुद्ध बोलते हैं वे पापियों में भी अत्यंत पापी हैं और अधमों में भी महा अधम हैं, उनके पण्डितपने को धिक्कार हो !||
भावार्थ:- जो जीव लौकिक प्रयोजन साधने के लिये पाप करते हैं वे तो पापी ही हैं परन्तु जो बिना प्रयोजन ही अपनी मान कषाय को पोषने के लिये पंडितपने के गर्व से जिनमत के विरुद्ध उपदेश करते हैं वे महापापी हैं क्योंकि कषाय के वशीभूत होकर जिनमत से यदि एक अक्षर भी अन्यथा कहे तो वह अनंत संसारी होता है-ऐसा कहा गया है ||१२१।।
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