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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भावार्थ:- संसार में पर्यायदृष्टि से देखने पर कोई भी श्री नेमिचंद जी/ पदार्थ स्थिर नहीं है अतः शरीरादि के लिये वृथा पाप भव्य जीव
का उपार्जन करके आत्मा का कल्याण नहीं करना यह बड़ी मूर्खता कि है ||१०६ ।।
अत्यन्त शोक से नरक गमन होता है सोएण कंदिऊणं, कट्टेऊणं' सिरं च उर ऊरं। अप्पं खिवंति णरए, तं पि हु धिद्धी कुणेहत्तं ।।११०।। अर्थः- जो जीव नष्ट हुए पदार्थों का शोक करके ऊँचे स्वर से क्रन्दन करके रोते हुए सिर और छाती कूटता है वह अपनी आत्मा को नरक में पटकता है, उसके ऐसे कुस्नेह को भी धिक्कार है।।११० ।।
शोक करना सर्वथा दुःखदायी है एग पि य मरण दुह, अण्णं अप्पा वि खिप्पए णरए। एगं च माल-पडणं, अण्णं च लठेण सिरघाओ।।१११।। अर्थ:- एक तो प्रियजन के मरण का दुःख और दूसरा उसके शोक में अपने को नरक में पटकना-यह कार्य तो वैसा ही है जैसे कोई पहले तो ऊपर पर्वत से गिरे और फिर लाठी से सिर में घाव हो जाये ।।
भावार्थ:- बीती हुई पर्याय वापिस नहीं आती-ऐसा वस्तुस्वरूप है अतः शोक करना वृथा है। एक तो वह वर्तमान में दुःख रूप है और दूसरे आगामी काल में नरकादि दुःखों का कारण है। शोक में कुछ सार नहीं है।।१११।।
१. टि०-यहाँ 'कूटना' अर्थ है अतः 'कुट्टेऊणं' पाठ उचित प्रतीत होता है।
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