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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भव्य जीव
KET आगे जिनके शोकादि नहीं है ऐसे ज्ञानी जीवों की इस श्री नेमिचंद की काल में दुर्लभता दिखाते हैं :
आज धर्मार्थी सुगुरु व श्रावक दुर्लभ हैं संपइ दूसमकाले, धम्मत्थी सुगुरु सावया दुलहा। णाम गुरु णाम सावय, सरागदोसा बहू अत्थि।।११२।। अर्थ:- इस दुःखमा काल में धर्मार्थी सुगुरु व श्रावक दुर्लभ हैं। राग द्वेष सहित नाम मात्र के गुरु और नाम मात्र के श्रावक तो बहुत हैं ।। ___ भावार्थः- इस निकृष्ट काल में धर्मार्थी होकर धर्म का सेवन करना दुर्लभ है। लौकिक प्रयोजन के लिये धर्म का सेवन करने वाले बहुत हैं सो नाम मात्र सेवन करते हैं। धर्म सेवन से जिस वीतराग भाव की प्राप्ति होती है वह उन नामधारी धर्मात्माओं को कभी नहीं हो सकती सो ऐसे जीव बहुत ही हैं | |११२ ।।
शुद्ध धर्म से धन्य पुरुषों को ही आनंद कहियं पि सुद्ध धम्म, काहि वि धण्णाण जणइ आणंदं। मिच्छत्त-मोहियाणं, होइ रइ मिच्छधम्मेसु ।।११३।।
अर्थः- जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया जो शुद्ध जिनधर्म का स्वरूप है वह अनेक भाग्यवान-धन्य जीवों को आनंदित करता है किन्तु जो मिथ्यात्व से मोहित जीव हैं उनकी प्रीति मिथ्याधर्म में ही होती है ||११३||
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