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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
यजीव
सुगुरु के उपदेश से भी किन्हीं के सम्यक्त्व नहीं वयणे वि सुगुरु जिण, वल्लहस्स केसिं ण उल्लसइ सम्मत्तं। अह कह दिणमणि तेअं, अलुआणं हरइ अंधत्तं ।।१०८।। अर्थः- जिनराज ही हैं प्रिय जिनको ऐसे निर्ग्रन्थ सद्गुरु का उपदेश होने पर भी किन्हीं जीवों के सम्यक्त्व उल्लसित नहीं होता अथवा सूर्य का प्रकाश क्या उल्लुओं के अंधत्व को हर सकता है अर्थात् नहीं हर सकता।।
भावार्थ:- जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश हो जाने पर भी उल्लुओं का अंधत्व नष्ट नहीं होता उसी प्रकार सदगरु के वचन रूपी सर्य का तेज मिलने पर भी जिनका मिथ्यात्व अंधकार नष्ट नहीं होता वे जीव उल्लू जैसे ही हैं। जिनकी होनहार भली नहीं है उनको सुगुरु का सदुपदेश कभी रुचता नहीं है किन्तु विपरीत ही भासित होता है।।१०८ || आगे मिथ्यादृष्टि जीवों की मूर्खता दिखाते हैं :
अज्ञानियों के ढीठपने को धिक्कार है तिहुवण जणं मरंतं, दिठूण णिति जे ण अप्पाणं। विरमंति ण पावाओ, धिद्धी धिट्टत्तणं ताणं।।१०६।।
अर्थः- तीन लोक के जीवों को निरन्तर मरते हुए देखकर भी जो
जीव अपनी आत्मा का अनुभव नहीं करते और पापों से विराम नहीं मत लेते उनके ढीठपने को धिक्कार है।।
TREASEEM