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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
भव्य जीव
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गुणवान गुरुओं का सद्भाव आज भी है अज्ज वि गुरुणो गुणिणो, सुद्धा दीसंति लड़यडा केवि। पहु जिणवल्लह सरिसो, पुणो वि जिणवल्लहो चेव ।।१०७।।
अर्थः- आज भी ऐसे कई गुणवान निर्दोष गुरु दिखाई देते हैं जो जिनराज के समान हैं अर्थात् नग्न मुद्रा के धारी हैं और केवल बाह्य लिंगधारी ही नहीं वरन् जिनराज ही हैं इष्ट जिनको ऐसे हैं अर्थात् जिनभाषित धर्म के धारी हैं, केवल नग्न परमहंसादि के समान नहीं हैं ।।
भावार्थ:- यहाँ कोई कहता है कि 'इस क्षेत्र में और इस काल में मुनि तो दिखाई नहीं देते फिर 'आज भी जिनवल्लभ मुनि हैं-ऐसा वचन कैसे कहा ?'
इसका उत्तर है कि 'यह वचन सिर्फ तुम्हारी ही अपेक्षा से तो है नहीं, वचन तो सबकी अपेक्षा है। तुम्हें अपने तुच्छ ज्ञान में यदि मुनि का सद्भाव नहीं दिखता तो इससे कोई सर्वत्र उनका अभाव नहीं कहा जा सकता, किसी न किसी पुरुष को तो वे प्रत्यक्ष होंगे ही क्योंकि दक्षिण देश में आज भी मुनियों का सद्भाव शास्त्र में कहा गया है' ||१०७।।
१. टि०-सागर प्रति में इस गाथा का अर्थ इस प्रकार दिया है:अर्थ:- जिन्हें जिनराज ही परम इष्ट हैं, जो स्वयं जिनवल्लभ हैं अर्थात् जो जिनेन्द्र को प्रिय हैं-ऐसे शुद्ध पवित्र गुणों के धारक जिनवल्लभ नग्न दिगम्बर गुरु आज भी कहीं-कहीं दिखाई देते हैं।
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