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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
यजीव
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जिनवचनों से मंडित सब ही गुरु हैं णो अप्पणा पराया, गुरुणो कइ आवि हुँति सद्धाणं। जिणवयण-रयण-मंडण, मंडिय सव्वे वि ते सुगुरु।।१०५।।
अर्थ:- श्रद्धावान जीवों को 'यह मेरा गुरु' और 'यह पराया गुरु' ऐसा भेद गुरु के विषय में कदापि नहीं होता। जिनवचन रूपी रत्नों के आभूषणों से जो मंडित हैं वे सब ही गुरु हैं ।।
भावार्थः- इस कलिकाल में कई जीव ऐसा मानते हैं कि अमुक गच्छ के या अमुक सम्प्रदाय के तो हमारे गुरु हैं, शेष दूसरों के गुरु हैं हमारे नहीं सो ऐसा एकान्त जिनमत में नहीं है। जिनमत में तो पंच महाव्रत और अट्ठाईस मूलगुण रूप यथार्थ आचरण के जो धारी हैं वे सब ही गुरु हैं ||१०५||
सज्जनों की संगति की बलिहारी है बलि किज्जामो सज्जण, जणस्स सुविसुद्ध पुण्णजुत्तस्स।
जस्स लहु संगमेण वि, सुधम्म-बुद्धि समुल्लसइ ।।१०६।। अर्थः- जो सुविशुद्ध बुद्धि के धारक पुण्यवान सज्जन पुरुष हैं मैं उनकी बलिहारी जाता हूँ, प्रशंसा करता हूँ क्योंकि उनकी संगति से शीघ्र ही विशुद्ध धर्मबुद्धि समुल्लसित हो जाती है।। ___ भावार्थ:- यदि मिथ्यात्व रहित सम्यक्त्वादि धर्म बुद्धि उल्लसित
करने की तुम्हारी इच्छा हो तो साधर्मी विशेष ज्ञानीजनों की संगति | करो क्योंकि संसार में संगति से ही गुण-दोषों की प्राप्ति देखने में वनर आती है।।१०६ ।।
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