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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत श्री नेमिचंद जी भव्य जीव महा सज्जनस्वभावी निर्ग्रन्थ गुरुजन हैं। इनके सिवाय अन्य । कुदेवादि तो पाप के स्थान हैं जिनसे मैं स्वयं को तथा दूसरों क) को वर्जित करता हूँ।।। भावार्थः- देव-गुरु-धर्म का श्रद्धान सम्यक्त्व का मूल कारण है सो मैंने अपना तथा दूसरों का श्रद्धान दृढ़ करने के लिये यह उपदेश रचा है-ऐसा आशय है||१०३।। जिनाज्ञा में रत ही हमारे धर्मार्थ गुरु हैं अम्हाण रायरोसं, कस्सुवरि णत्थि अत्थि गुरु विसये। जिणआणरया गुरुणो, धम्मत्थं सेस वोस्सरिमो।।१०४ ।। अर्थः- हमारा किसी के ऊपर राग-द्वेष नहीं है, केवल मात्र गुरु के सम्बन्ध में यह राग-द्वेष है कि जो जिनाज्ञा में तत्पर हैं वे तो हमारे धर्म के अर्थ गुरु हैं, इनके सिवाय शेष अन्य कुगुरुओं का मैं त्याग करता हूँ।। भावार्थ:- यदि कोई कहे कि तुम्हारे राग-द्वेष है इसलिये तुम ऐसा उपदेश देते हो तो उनको कहा गया है कि किसी लौकिक प्रयोजन के लिये हमारा उपदेश नहीं है, केवल धर्म के लिये ही सुगुरु और कुगुरु के ग्रहण-त्याग कराने का हमारा प्रयोजन है क्योंकि र सुगुरु-कुगुरु सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मूल कारण हैं' ।।१०४ ।। CN
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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