SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश सिद्धान्त श्री रत्नमाला श्रा नेमिचंद भंडारी कृत श्री नेमिचंद जी भावार्थ:- समस्त जीवों का हित सुख है और वह सुख च य धर्म से होता है इसलिए जो शुद्ध धर्म का उपदेश देते हैं वे न ही परमात्मा और परम हितकारी हैं, अन्य स्त्री-पुत्रादि हितकारी नहीं पा हैं क्योंकि उनसे तो मोह उत्पन्न होता है ||१०१।। अविवेकी मध्यस्थ नहीं रह सकता जे अमुणिय गुणदोसा, ते कह विबुहाण हंति मज्झत्था ! अह ते वि हु मज्झत्था, विस अमियाण तुल्लत्तं ।।१०२।। अर्थ:- जो मूर्ख गुण और दोष को नहीं पहिचानते वे पंडितों के ऊपर माध्यस्थ्य भाव कैसे रख सकते हैं, क्रोधादि कैसे नहीं करेंगे अर्थात् करेंगे ही क्योंकि उन्हें पंडितों के गुणों की परख नहीं है अथवा वे मूर्ख भी यदि मध्यस्थ हों तो विष और अमृत का समानपना ठहर जाए सो है नहीं' ।।१०२ ।।। धर्म के मूल वीतरागी देव-गुरु-शास्त्र हैं मूलं जिणिंद देवो, तव्वयणं गुरुजणं महासयणं । सेसं पावट्ठाणं, परमप्पाणं च वज्जेमि।।१०३।। अर्थः- धर्म की उत्पत्ति के मूल कारण जिनेन्द्र देव, जिनवचन और १. टि०-सागर प्रति में इस अन्तिम पंक्ति के स्थान पर ये पंक्तियाँ हैं :"वे तो विष और अमृत को समान ही बतलाते हैं, फिर मध्यस्थ कैसे रह सकेंगे अर्थात् नहीं रह सकते। ६१
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy