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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
प्रभु देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का भंग करने पर दुःख नहीं होगा अर्थात् होगा ही होगा । ।
भावार्थ:- मात्र अज्ञानवश कोई जीव यदि पदार्थ का अयथार्थ निरूपण करे तो भी आज्ञा भंग का दोष नहीं है किन्तु जो जीव कषायवश एक अंश मात्र भी अयथार्थ - अन्यथा कहे अथवा करे तो वह अनंत संसारी होता है क्योंकि जो समस्त मिथ्या मतों का प्रवर्तन है वह प्रवर्तन जिनाज्ञा नहीं मानने के कारण है इसलिये धर्मार्थी पुरुषों को कषाय के वश होकर जिनाज्ञा भंग करना योग्य नहीं है । बाकी जिन्हें अपनी मानादि कषायों की पुष्टि करनी हो उनकी बात अलग है ।। ६८ ।।
जिनवचन- विराधक को धर्म व दया नहीं होती
जगगुरु जिणस्स वयणं, सयलाण जियाण होइ हियकरणं । ता तस्स विराहणया, कह धम्मो कह णु जीवदया ।। ६६ ।।
अर्थः- जगत के गुरु जो जिनराज हैं उनके वचन समस्त जीवों को हितकारी हैं सो ऐसे जिनवचनों की विराधना से कहो, कैसे धर्म हो सकेगा और किस प्रकार जीवदया पल सकेगी ! ।।
भावार्थः- अन्य कई लोग हैं वे जिनाज्ञा प्रमाण पूजादि कार्यों में हिंसा मानकर उनका तो उत्थापन करते हैं तथा अन्य रीति से धर्म तथा जीवदया की प्ररूपणा करते हैं । उनको कहा गया है कि 'जिनपूजनादि कार्यों में यदि हिंसा का दोष होता तो भगवान उनका उपदेश ही क्यों देते इसलिए तुम्हारी समझ में ही दोष है। जिनवचन तो सर्वथा दयामयी
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भव्य जीव