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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
[श्री नेमिचंद जी/
भव्य जीव
यह सिद्धांत रचा गया है जिसे सभी मुनि और श्रावक श्रद्धापूर्वक मानते हैं, पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं ।। भावार्थ:- यह उपदेश पहले आचार्य धर्मदास जी ने रचा था उसी हिसाब को मैंने कहा है कोई कपोल-कल्पित नहीं है अतः प्रामाणिक है और सम्यक्त्वादि को पुष्ट करने से सबका कल्याणकारी है।। ६६ ।।
शास्त्र की निन्दा दुःखों का कारण है तं चेव केइ अहमा, छलिया अइ माण मोह भूएण। किरियाए हीलंता, हा ! हा! दुक्खाई ण गणंति।।६७।।
अर्थः- ऐसे शास्त्रों की भी कई अधम मिथ्यादृष्टि आचरण में निन्दा करते हैं सो हाय ! हाय !! निंदा करने से जो नरकादि के दुःख होते हैं उन्हें वे जीव गिनते ही नहीं हैं | कैसे हैं वे जीव ? अत्यंत मान और मोह रूपी राजा के द्वारा ठगाये गये हैं ।।
भावार्थ:- जो यथार्थ आचरण तो कर नहीं सकते और अपने आपको महंत मनवाना चाहते हैं, तीव्र मोही हैं उनको यह यथार्थ उपदेश रुचता नहीं ।। ६७।।
जिनाज्ञा के भंग से दुःखों की प्राप्ति इयराण चक्कराण वि, आणा भंगे वि होइ मरणदुहं । किं पुण तिलोयपहुणो, जिणिंद देवाहिदेवस्स।।६८।।
अर्थः- चक्रवर्ती अथवा अन्य साधारण राजाओं की भी आज्ञा भंग || सरत करने पर मरण तक का दुःख होता है तो फिर क्या तीन लोक के जाना
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