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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भावार्थ:- यदि संसार में सुख होता तो तीर्थंकर आदि महापुरुष किसलिये राजपाट को छोड़कर दीक्षा धारण करते पर वे दीक्षा धारण करते ही हैं इससे मालूम होता है कि संसार में महान दुःख है ।। ६४ ।।
ऋद्धियों से उदास पुरुष ही प्रशंसनीय है
वण्णेमि णारयाउ वि, जेसिं दुक्खाइं संस्मरंताणं । भव्वाण जणइ हरिहर, रिद्धि-समिद्धि-विउव्वासं । । ६५ ।।
अर्थ:- मैं उस भव्य जीव की प्रशंसा करता हूँ, उसे धन्य मानता हूँ जिसे नरकादि के दुःख स्मरण करते हुए मन में हरिहरादि की ऋद्धि और समृद्धि के प्रति भी उदासभाव ही उत्पन्न होता है ।।
भावार्थ:- ज्ञानी जीव हरिहरादि की ऋद्धियों एवं समृद्धि रूप वैभव में भी प्रसन्न नहीं होते तो अन्य विभूति में तो कैसे रहेंगे अर्थात् नहीं रहेंगे क्योंकि ज्ञानी जीव बहुत आरंभ और परिग्रह से नरकादि के दुःखों की प्राप्तिजानते हैं और केवल सम्यग्दर्शनादि ही को आत्मा का हित मानते हैं ।। ६५ ।।
पूर्वाचार्य का आभार
सिरि धम्मदास गणिणा, रइयं उवएसमालसिद्धंतं । सव्वे व समण सावया, मण्णंति पठंति पाठति ।। ६६ ।।
अर्थः- श्री धर्मदास आचार्य द्वारा उपदेश की है माला जिसमें ऐसा
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भव्य जीव