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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
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श्री नेमिचंद जी
ढीठ, दुष्टचित्त और सुभट कौन है साहीणे गुरुजोगे, जे ण हु णिसुणंति सुद्ध धम्मत्थं। यजीव ते धिट्ट-दुद्दचित्ता, अह सुहडा भवभयविहूणा।।६३।। अगर अर्थः- धर्म का सत्यार्थ मार्ग दिखलाने वाले सुगुरु का स्वाधीन सुयोग मिलने पर भी जो निर्मल धर्म का स्वरूप नहीं सुनते वे पुरुष ढीठ हैं और दुष्ट चित्त वाले हैं अथवा संसार परिभ्रमण के भय से रहित सुभट हैं ।। ___ भावार्थ:- धर्मात्मा पुरुष तो यदि वक्ता का निमित्त न हो तो भी उसका निमित्त कष्ट से भी मिलाकर धर्म श्रवण करते हैं और जिनको स्वयमेव वक्ता का निमित्त मिला और फिर भी धर्म श्रवण नहीं करते वे अपना अकल्याण करने से दुष्ट हैं और कहे की लज्जा नहीं इस कारण ढीठ हैं और यदि उन्हें संसार का भय होता तो वे धर्म श्रवण करते किन्तु वे नहीं सुनते हैं इससे जाना जाता है कि वे संसार के भय से रहित सुभट हैं | यह आचार्य ने तर्क निंदा की है।। ६३।।
गुणवान के निश्चय से मोक्ष होता ही है सुद्ध कुल-धम्म-जायवि, गुणिणो ण रमति लिंति जिणदिक्खं । तत्तो वि परमतत्तं, तओ वि उवयारओ मुक्खं ।।१४।।
अर्थ:- शुद्ध कुल व धर्म में उत्पन्न हुए गुणवान पुरुष निश्चय से संसार में नहीं रमते हैं किन्तु जिनदीक्षा ग्रहण करते हैं और फिर उसके बाद परम तत्त्व रूप निज शुद्ध आत्मा का ध्यान करके आत्मा का परम हित रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं।।