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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अर्थः- जिनाज्ञा से तो धर्म है और जिनाज्ञा से रहित जीवों के प्रकट अधर्म है - ऐसा वस्तुस्वरूप जानकर जिनाज्ञा के अनुसार धर्म करो ।।
भावार्थ:- जो-जो धर्म कार्य करना वह जिनाज्ञा प्रमाण ही करना । अपनी युक्ति से मानादि कषायों का पोषण करने के लिये जिनाज्ञा के सिवाय प्रवर्तन करना योग्य नहीं है क्योंकि छद्मस्थ से अवश्य भूल हो ही जाती है ।
यहाँ कोई कहता है - जिनाज्ञा तो अन्य लोग भी कहते हैं फिर हम किसको प्रमाण मानें ?
इसका उत्तर- कुन्दकुन्द आदि महान आचार्यों ने जो युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध यथार्थ आचरण बताया है उसे तो अंगीकार करना और अन्य लोग ने जो अपना शिथिलाचार बताया है सो युक्ति, शास्त्र से परीक्षा करके जो प्रकट विरुद्ध भासित हो उसे त्यागना ।
फिर कोई कहता है- यदि दिगम्बर शास्त्रों में अन्य - अन्य प्रकार से कथन हो तो क्या करें ?
भव्य जीव
इसका उत्तर - जो सभी शास्त्रों में एक जैसा कथन हो वह तो प्रमाण है ही और यदि कहीं विवक्षावश अन्य कथन हो तो उसकी विधि मिला लेना अर्थात् विवक्षा समझ लेना । यदि अपने ज्ञान में विधि न मिले तो अपनी भूल मानकर विशेष ज्ञानियों से पूछकर निर्णय कर लेना । शास्त्र देखने का विशेष उद्यमी रहे तो भूल मिट जाती है और श्रद्धा निर्मल, होती है। शास्त्रों का विशेष अभ्यास सम्यक्त्व का मूल कारण है ।। ६२ ।
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