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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भावार्थ:- जिसमें जो गुण होते हैं उसकी सेवा करने से वे चंद जी, ही गुण प्राप्त हो जाते हैं-ऐसा न्याय है। अरिहन्त देव का भव्य जीव
स्वरूप ज्ञान-वैराग्यमय है अतः उनकी पूजा, ध्यान एवं स्मरणादि करने का से ज्ञान-वैराग्य रूप सम्यक्त्व गुण की प्राप्ति होती है और सरागी । देवों का स्वरूप राग-द्वेष एवं लोभ-क्रोधादि विकारमय है अतः उनकी पूजा–भक्ति करने से मिथ्यात्वादि पुष्ट होते ही होते हैं-ऐसा जानना।। ६०||
तत्त्वविद् की पहिचान जं जं जिण आणाए, तं चिय मण्णइ ण मण्णए सेसं। जाणइ लोयपवाहे, ण हु तत्तं सोय तत्तविऊ।।११।। अर्थः- जिनाज्ञा में जो-जो कहा गया है उस-उसको तो मानता है और जिनाज्ञा के सिवाय और को नहीं मानता है तथा लोकरीति में परमार्थ नहीं जानता है-ऐसा पुरुष तत्त्वविद् है।।
भावार्थ:- जो सम्यग्दृष्टि हैं वे जिनभाषित धर्म को तो सत्यार्थ जानते हैं और अन्य मिथ्यादृष्टि लोगों की सब रीति को मिथ्या जानते हैं ।। ६१||
जिनाज्ञा के अनुसार धर्म करो जिण आणाए धम्मो, आणारहियाण फुड अहम्मित्ति। इय मुणिऊण य तत्तं, जिण आणाए कुणह धम्मं ।।२।।
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