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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
उत्सव के समान है परन्तु मिथ्यात्व सहित जीवों को किसी पूर्व पुण्य कर्म के उदय से वर्तमान में तो सुख सा दिखाई देता है जिसे वे अत्यंत आसक्तिपूर्वक भोगते हैं किन्तु उससे तीव्र पाप का बंध होने से आगामी नरकादि का महा दुःख होगा इसलिये उन्हें उत्सव भी विघ्न के समान है । अतः ऐसा जानना कि सम्यक्त्व सहित दुःख भी भला है किन्तु मिथ्यात्व सहित सुख भी भला नहीं है ।। ८५ ।।
दृढ़ सम्यग्दृष्टि इन्द्र द्वारा भी वंदनीय हैं
इंदो वि ताण पणमइ, हीलंतो णियरिद्धि वित्थारं । मरणंते वि हु पत्ते, सम्मत्तं जे ण छंडंति । । ८६ । । अर्थः- मरण पर्यंत दुःख प्राप्त होने पर भी जो जीव सम्यक्त्व को नहीं छोड़ते हैं उन्हें इन्द्र भी अपनी ऋद्धियों के विस्तार की निन्दा करता हुआ प्रणाम करता है ।।
भावार्थ:- इन्द्र भी यह जानता है कि जिनके दृढ़ सम्यग्दर्शन है वे ही जीव शाश्वत सुख प्राप्त करते हैं इसलिए सम्यक्त्व ही अविनाशी ऋद्धि है क्योंकि वह आत्मा का स्वरूप है और ये अन्य ऋद्धियाँ - इन्द्र विभूति आदि तो विनाशीक हैं, दुःख की कारण हैं अतः वह भी सम्यग्दृष्टियों को नमस्कार करता है ।। ८६ ।।
मोक्षार्थी किसी कीमत पर सम्यक्त्व नहीं छोड़ता छंडंति णियअ जीवं, तिणं व मुक्खत्थिणो तउ ण सम्मं । लब्भइ पुणो वि जीवं, सम्मत्तं हारियं कुत्तो ।। ८७ ।।
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भव्य जीव