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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अर्थः- जो जीव मोक्ष के इच्छुक हैं वे अपने जीवन को तो तृण के समान त्याग देते हैं परन्तु सम्यक्त्व को नहीं छोड़ते क्योंकि जीवन तो पुनः प्राप्त हो जाता है परन्तु सम्यक्त्व के चले जाने पर फिर उसकी प्राप्ति दुर्लभ है ।।
भावार्थ:- कर्मोदय के आधीन मरण और जीवन तो अनादि ही से होता आया है किन्तु जिनधर्म और सम्यक्त्व की प्राप्ति महा दुर्लभ है इसलिये प्राणांत होता हो तो भी सम्यक्त्व छोड़ना योग्य नहीं है ।। ८७ ।।
सम्यग्दर्शन ही वास्तविक वैभव है
गय विहवा वि सविहवा, सहिया सम्मत्त रयण राएण । सम्मत्त रयण रहिआ, संते वि धणे दरिद्दत्ति ||८८ ||
अर्थः- जो पुरुष सम्यक्त्व रूपी रत्नराशि से सहित हैं वे धनधान्यादि वैभव से रहित होने पर भी वास्तव में वैभव सहित ही हैं और जो पुरुष सम्यक्त्व से रहित हैं वे धनादि सहित हों तो भी दरिद्र ही हैं ।।
भावार्थः- जिन्हें आत्मज्ञान हुआ है उन्हें धनादि परद्रव्य के होने और न होने से हर्ष-विषाद नहीं होता, वे तो वीतरागी सुख के आस्वादी अर्थात् अभिलाषी हैं इसलिये वे ही सच्चे धनवान हैं और अज्ञानी तो परद्रव्य की हानि - वृद्धि में सदा आकुलित हैं इसलिये वे दरिद्र ही हैं - ऐसा जानना । । ८८ ||
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भव्य जीव