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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अर्थ:- मिथ्यात्व का सेवन करने वालों को सैकड़ों विघ्न आते हैं तो भी पापी जीव कोई यह नहीं कहते कि ये विघ्न मिथ्यात्व का सेवन करने के कारण आए हैं और दृढ़ सम्यक्त्वी जीवों को पूर्व कर्म के उदय से यदि विघ्न का एक अंश भी आ जाता तो उसे वे धर्म का फल प्रकट कर कहते हैं । ।
भावार्थ:- कुदेवादि का सेवन करने से सैकड़ों विघ्न आते हैं उन्हें तो मूर्ख लोग गिनते ही नहीं हैं परन्तु धर्म का सेवन करने वाले धर्मात्मा पुरुषों को यदि पूर्व कर्म के उदय से कदाचित् किंचित् भी विघ्न आ जाये तो ऐसा कहते हैं कि 'धर्म सेवन करने से ही यह विघ्न आया है।' ऐसी विवेकहीन विपरीत बुद्धि होती है सो यह मिथ्यात्व की महिमा है । । ८४।।
मिथ्यात्वत सुख से सम्यक्त्वयुत दुःख भला है
सम्मत्तसंजुयाणं, विग्धं पि हु होइ उच्छउ सरिच्छं । परमुच्छवं पि मिच्छत्त, संजुअं अइ महाविग्धं । ८५ ।। अर्थः- सम्यक्त्व सहित जीव को विघ्न भी हो तो भी वह उसे उत्सव के समान है और मिथ्यात्व सहित जीव को परम उत्सव भी हो तो भी वह उसे महा विघ्न है ।।
भावार्थः- सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जीवों को पूर्व कर्म के उदय से यदि कोई उपसर्ग आदि भी आ जाये तो वहां उनकी श्रद्धा निश्चल रहने से पाप कर्म की निर्जरा होती है और पुण्य का अनुभाग बढ़ जाता है जिससे उन्हें भविष्य में महान सुख होगा इसलिये उनको विघ्न भी
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भव्य जीव