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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
भव्य जीव
मात्र वेषी दूर से ही त्याज्य हैं वेस्साण वंदियाण य, महाणडूवाण जक्ख सिक्खाणं। भत्ताभर कट्ठाणं, विरयाणं जंति दूरेण ।।८२।।। अर्थः- मात्र वेष धारण किया है जिन्होंने उन्हें वंदन करने से, उनकी। शिक्षाओं को ग्रहण करने से तथा उनकी विशेष भक्ति करने से जीव महा भवसमुद्र में डूबते हैं इसलिये उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिये ।। ८२।।
जिनमार्ग में चलने वाले अमार्गी प्रशंसनीय हैं सुद्धे मग्गे जाया, सुहेण गच्छंति सुद्ध मग्गम्मि।
जेहि अमग्गे जाया, मग्गे गच्छति ते बज्ज।।३।। अर्थ:- जिन्होंने शुद्ध मार्ग में जन्म लिया है वे तो सुखपूर्वक शुद्ध मार्ग में चलते ही हैं परन्तु जिन्होंने अमार्ग में जन्म लिया है और मार्ग में चलते हैं सो आश्चर्य है।।
भावार्थ:- जिनके परम्परा से जिनधर्म चला आया है वे जिनधर्म में प्रवर्तते हैं सो तो ठीक ही है परन्तु जो अन्य कुल में जन्म लेकर जिनधर्म में प्रवर्तन करते हैं सो यह आश्चर्य है, वे अधिक प्रशंसा के योग्य हैं।। ८३||
पापियों की विवेकहीन बुद्धि होती है मिच्छत्तसेवगाणं, विग्धं सयाई पि विंति णो पावा। विग्धं लवम्मि वि पडिए, दिढा धम्माण य भण्णंति।।८४||
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