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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अर्थः- जिस प्रकार पृथ्वीतल पर प्रकट दैदीप्यमान सूर्य भी बादलों से ढका होने पर लोगों को दिखाई नहीं देता उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय में जीवों को प्रकट जिनदेव भी प्राप्त नहीं होते ।।
भावार्थ:- अरिहन्तदेव का स्वरूप जैसा है वैसा युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध परीक्षा करने वालों को तो प्रकट दिखाई देता है परन्तु जिनके मिथ्यात्व का उदय है उन्हें कुछ भी नहीं भासता । । ८०||
मिथ्यात्वरत का मनुष्य जन्म निष्फल है
किं सो वि जणणि जाओ, जाओ जणणी ण किं गओ बुद्धिं । जइ मिच्छरओ जाओ, गुणेसु तह मच्छरं वहइ ||१||
अर्थः- जो पुरुष मिथ्यात्व में आसक्त है और सम्यग्दर्शनादि गुणों में मत्सरता धारण करता है वह पुरुष क्या माता के उत्पन्न हुआ अपितु नहीं हुआ अथवा उत्पन्न भी हुआ तो क्या वृद्धि को प्राप्त हुआ अपितु नहीं हुआ ।।
भावार्थः- मनुष्य जन्म धारण करने का फल तो यह है कि जिनवाणी का अभ्यास करके मिथ्यात्व का तो त्याग करना और सम्यक्त्वादि गुणों को अंगीकार करना। जिसने यह कार्य नहीं किया उसका मनुष्य जन्म पाना भी न पाने के बराबर है ।। ८१ ।।
भव्य जीव
१. टि० - सागर प्रति में इस गाथा का अर्थ ऐसा दिया है :
अर्थ:- जो पुरुष मिथ्यात्व में लीन है और सम्यक्त्वादि गुणों के प्रति मत्सर भाव रखता है तो उस पुरुष ने माता के पेट से जन्म ही क्यों लिया? उसका जन्म लेना व्यर्थ हुआ
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