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________________ श्री नेमिचंद जी उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत चलायमान नहीं होते इसलिये आचार्य कहते हैं कि 'जिनवाणी के अनुसार देव, गुरु और धर्म का यथार्थ स्वरूप पहिचान कर ही धर्म धारण करना भला है' ।। ७४ ।। मिथ्यादृष्टियों के धर्म का आचरण योग्य नहीं संगो वि जाण अहिओ, तेसिं धम्माइ जे पकुव्वंति । मुत्तूण चोरसंगं, करंति ते चोरियं पावा ।। ७५ ।। अर्थः- जिन मिथ्यादृष्टियों की संगति भी महान अहितकारी है उसे छोड़कर, जो जीव उनके धर्म का आचरण करते हैं वे तो मानो चोर का संग छोड़कर स्वयं पापी होकर चोरी करते हैं ।। भावार्थ:- कितने ही जीव अपने को धर्मात्मा कहलवाने के लिए स्वयं मिथ्यादृष्टियों की संगति तो नहीं करते परन्तु उनके द्वारा कहा गया जिनाज्ञा रहित कुदेवों का पूजनादि आचरण रूप कार्य करते रहते हैं, वे पापी ही हैं इसलिये मिथ्यादृष्टियों द्वारा कहा हुआ आचरण रंचमात्र भी करना योग्य नहीं है ।। ७५ ।। वीतरागी की अवहेलना के कार्य न कर जत्थ पसु महिस लक्खा, पव्वे होमंति पाव णवमीए । पूति तं पि सड्ढा, हा! हीला वीयरायस्स ।। ७६ ।। अर्थः- जिस पापनवमी' के दिन लाखों पशुओं-भैंसों आदि की बलि J १. टि० - विजयादशमी (दशहरे) से पहला दिन 'पापनवमी' कहलाता है । ४५ भव्य जीव
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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