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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
__ भावार्थ:- कितने ही जीवों के देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा
आदि का तो कुछ भी ठीक नहीं होता और अनुक्रम का भंग भव्य जीता। करके किसी भी प्रकार की कोई प्रतिज्ञा आदि लेकर अपने को श्रावका मानने लगते हैं पर वास्तव में वे श्रावक नहीं हैं। श्रावक तो वे तब ही होंगे जब यथायोग्य आचरण करेंगे । । ७३ ।।
निर्णय करके धर्म धारण करना योग्य है किवि कुल कम्मम्मि रत्ता, किवि रत्ता सुद्ध जिणवरमयम्मि। इय अंतरम्मि पिच्छह, मूढाणं यं ण याणंति।। ७४।। अर्थः- कितने ही जीव तो कुलक्रम में ही आसक्त हैं अर्थात् जैसा बड़े करते आये हैं वैसा ही करते हैं, किसी भी प्रकार के हित-अहित का विचार कर निर्णय नहीं करते और कितने ही जीव शुद्ध जिनराज के मत में आसक्त हैं तथा जिनवाणी के अनुसार निर्णय करके जिनधर्म को धारण करते हैं सो देखो! इन दो प्रकार के जीवों के अन्तरंग में कितना बड़ा अन्तर है। वे बाहर से तो एक जैसे दिखाई देते हैं किन्तु परिणामों में बहुत ज्यादा अंतर है पर मूढ़ जीव न्याय को नहीं जानते, वे तो सभी को एक समान मानते हैं।।
भावार्थ:- स्वयं परीक्षापूर्वक निर्णय किये बिना मात्र कुलक्रम के अनुसार जो जीव धर्म को धारण करते हैं तो यदि उनके कुल के लोग धर्म को छोड़ते हैं तो वे भी छोड़ देते हैं परन्तु जो जीव परीक्षापूर्वक निर्णय करके सच्चे जिनधर्म को धारण करते हैं वे कभी भी धर्म से जान्न
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