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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत VE श्री नेमिचंद जी भव्य जीव आचरण से साध्य की सिद्धि, कुल से नहीं जह केइ सुकुल बहुणो, सीलं मइलंति लिंति कुल णाम। मिच्छत्तमायरंत वि, वहति तह सुगुरु केरत्तं ।। ७२।। अर्थ:- जैसे कोई उत्तम कुलवधू व्यभिचार का सेवन करके अपने शील को तो दोष लगाये और कुल का नाम लेकर कहे कि 'मैं अमुक ऊँचे कुल वाली हूँ' वैसे ही कुगुरु स्वयं मिथ्यात्व का आचरण करते हुए भी कहते हैं कि 'हम सुगुरु के शिष्य हैं'।। भावार्थ:- इस काल में जैनमत में भी पीतांबर, रक्तांबर आदि वेषधारी हुए हैं वे भगवान की आज्ञा की विराधना करके वस्त्रादि परिग्रह धारण करते हए भी अपनी भट्टारक आचार्य आदि पदवी मानते हैं और कहते हैं कि 'हम गणधर आदि के कुल के हैं। उनसे यहाँ कहते हैं कि 'जो अन्यथा आचरण करेगा वह मिथ्यादृष्टि ही है, कुल से कुछ साध्य की सिद्धि नहीं है। जैसे कोई बड़े कुल की भी स्त्री हो पर यदि वह कुशील का सेवन करे तो कुलटा ही है, कुलीन नहीं' ||७२।। उत्सूत्र आचरण करने वाला श्रावक नहीं उस्सुत्तमायरंत वि, ठवंति अप्पं सुसावगातम्मि। ते सदरिद्द धत्थ वि, तुलंति सरिसं धणातॄहिं।। ७३।।। अर्थ:- जो पुरुष जिनसूत्र का उल्लंघन करके आचरण करते हुए भी स्वयं को उत्तम श्रावकों में स्थापित करते हैं अर्थात् अपने को श्रावक मानते हैं वे दरिद्रता से ग्रसे हुए भी अपने आपको धनवान के समान AMERIT तोलते हैं।।
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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