SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री नेमिचंद जी उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत निर्मल श्रद्धान से लोकरीति में भी धर्मप्रवृत्ति जह जहजिदि वयणं, सम्मं परिणमइ सुद्ध हिययाणं । तह तह लोयपवाहे, धम्मं पडिहाइ ण दुच्चरियं । । ६६ । । अर्थः- शुद्ध हृदय वाले पुरुषों को जैसे-जैसे जिनवचन भली प्रकार परिणमते हैं अर्थात् समझ में आते जाते हैं वैसे-वैसे लोकरीति में भी धर्म प्रतिभासित होता है और खोटा आचरण नहीं प्रतिभासित होता । । भावार्थ:- जीवों के जैसे-जैसे श्रद्धान निर्मल होता जाता है वैसे-वैसे लोक व्यवहार में भी उनकी धर्म रूप प्रवृत्ति होती जाती है और लोकमूढ़ता रूप खोटा आचरण छूटता जाता है ।। ६६ । । जिनधर्म के सामने मिथ्या धर्म तृण तुल्य हैं। जाण जिनिंदो णिवसइ, सम्मं हिययम्मि सुद्धणाणेण । ताण तिणं व विराइ, मिच्छाधम्मो इमो सयलो ।। ६७ ।। अर्थः- जिन पुरुषों के हृदय में शुद्ध ज्ञान सहित जिनराज बसते हैं उन्हें अन्य समस्त मिथ्यादृष्टियों के धर्म तृण तुल्य तुच्छ भासित होते हैं ।। भावार्थ:- जो जीव वीतराग देव के सेवक हैं उन्हें सरागियों द्वारा कहा गया मिथ्या धर्म तुच्छ भासता है, उनका अभ्युदय देखकर वे मन में आश्चर्य नहीं करते। वे यही जानते हैं कि यह विष मिश्रित भोजन है जो वर्तमान में तो भला दिखाई देता है किन्तु परिपाक में अतिशय हानिकारक है ।। ६७ ।। ४० भव्य जीव
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy