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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अहो ! लोकमूढ़ता प्रबल है
लोयपवाह- समीरण, उद्दण्ड पयण्ड लहरीए । दिढ़ सम्मत्त महाबल, रहिआ गुरुआ वि हल्लंति । । ६८ ।।
अर्थः- लोकमूढ़ता के प्रवाह रूप उत्कट पवन की प्रचण्ड लहरों से दृढ़ सम्यक्त्व रूपी महाबल से रहित बड़े-बड़े पुरुष भी हिल जाते हैं ।।
भावार्थः- समस्त मूढ़ताओं में लोकमूढ़ता ही प्रबल है जिससे बड़ेबड़े पुरुषों का भी श्रद्धान शिथिल हो जाता है इसलिये जैसे भी बने वैसे जिनमत का श्रद्धान दृढ़ करना और लोकरीति में मोहित नहीं होना। क्योंकि इसे सब लोग करते हैं इसलिये कुछ तो इसमें सार है - ऐसा न जानना । । ६८ । ।
जिनमत की अवज्ञा न कर, दुःख मिलेगा
जिणमय अवहीलाए, जं दुक्खं पावणंति अण्णाणी । णाणीण संभरित्ता, भयेण हिययं थरत्थरइ ।। ६६ ।।
अर्थ:- कई अज्ञानी जीव जिनमत की अवज्ञा करते हैं और उससे नरकादि में घोर दुःख भोगते हैं, उन दुःखों का स्मरण करने से ही ज्ञानी पुरुषों का हृदय भय से थर-थर कांपता है ।। ६६ ।।
सम्यक्त्व के बिना तू दोषी ही है
रे जीव अणाणीणं, मिच्छादिट्टीण णिअसि किं दोसो ! अप्पा वि किं ण याणसि, ण जइ काट्टण्ण सम्मत्तं ।। ७० ।।
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भव्य जीव