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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
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भव्य जीव
अर्थः- हे भाई ! गृह -व्यापार रहित ऐसे बहुत से मुनियों श्री नेमिचंद जी को ही सम्यक्त्व नहीं होता तो घर-व्यापार में लीन गृहस्थों
की तो हम क्या कहें ! उन्हें सम्यक्त्व होना तो महा दुर्लभ है।।
भावार्थ:- कई अज्ञानी जीव अपने को सम्यग्दृष्टि मानकर अभिमान करते हैं उनको आचार्य कहते हैं कि 'हे भाई! पंच महाव्रत के धारी मुनि भी स्व–पर को जाने बिना द्रव्यलिंगी ही रहते हैं तो फिर गृहस्थों की तो क्या बात अतः जिनवाणी के अनुसार तत्त्वों के विचार में उद्यमी रहना योग्य है। थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करके अपने को सम्यक्त्वी मानकर प्रमादी होना योग्य नहीं है ।। ६४।।
उत्सूत्रभाषी भव समुद्र में डूब जाता है ण सयं ण परं कोवा, जइ जिअ उस्सुत्त-भासणं विहियं । ता वुड्डसि णिज्झतं, णिरत्थयं तव कुडाडोवं ।। ६५ ।। अर्थः- यदि तूने सूत्र का उल्लंघन करके ऐसा कथन करना प्रारम्भ कर दिया है कि जिसमें अपना भी कुछ हित नहीं है और पर का भी नहीं है तो हे जीव ! तू निःसन्देह भवसमुद्र में डूब गया और तेरा समस्त तपश्चरण आदि का आडंबर वृथा है।। ___ भावार्थः- कितने ही जीव व्रत-उपवासादि तपश्चरण तो करते हैं परन्तु जिनवचनों का श्रद्धान नहीं करते हैं सो उनका समस्त आडंबर वृथा है अतः सम्यक् श्रद्धानपूर्वक ही क्रिया करनी योग्य है।। ६५।।
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