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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत आचरण करने लगते हैं तब जिन्हें शास्त्र का ज्ञान ही श्री नेमिचंद जी नहीं है उन्हें क्या दोष दें ! इसलिए कर्मोदय को धिक्कार हो! भव्यजीव हि धिक्कार हो !! क्योंकि उसके वश होने पर जीव को जिनदेव की प्राप्ति का भी अप्राप्ति समान ही है।। भावार्थ:- जैनकुल में उत्पन्न हुए कितने ही जीव नाम मात्र के तो जैनी कहलाते हैं किन्तु वे जिनदेव के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते और कितने ही जीव शास्त्राभ्यास भी करते हैं परन्तु वे भी अच्छी तरह से उपयोग लगाकर देवादि के स्वरूप का निर्णय नहीं करते सो यह उनके तीव्र पाप का ही उदय है जो निमित्त मिलने पर भी वे यथार्थ जिनमत को नहीं पा सके ।। ६० ।। स्वधर्म में उपहास तो सर्वथा न करना इयराण वि उवहासं, तमजुत्तं भाय कुलपसूआणं। एस पुण कोवि अग्गी, जं हासं सुद्ध धम्मम्मि।। ६१।। अर्थः- हे भाई ! जो बड़े कुल में उत्पन्न हुए पुरुष हैं उन्हें औरों का भी उपहास करना उचित नहीं है फिर तुम्हारी यह कौन सी रीति है कि शुद्ध धर्म में हास्य करते हो ! ।। __ भावार्थः- हास्य करना तो सर्वत्र ही पाप है परन्तु जो जीव धर्म र में हास्य करते हैं उन्हें महापाप होता है ।। ६१ ।। ३७
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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