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उपदेश सिद्धान्त श्री रत्नमाला
श्रा
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
भव्य जीव
मिथ्यादृष्टियों की कदापि प्रशंसा न करना मुद्धाण रंजणत्थं, अविहि पसंसं कयावि ण करिज्ज। किं कुलबहुणो कत्थ वि, धुणंति वेस्साण चरियाई।। ५८।। न अर्थः- मूर्यों को प्रसन्न करने के लिए मिथ्यादृष्टियों के विपरीत आचरण की कदापि प्रशंसा करनी योग्य नहीं है क्योंकि कुलवधू क्या कभी भी वेश्याओं के चारित्र की प्रशंसा करती है अपितु कभी नहीं करती।। ५८ ।।
जिनाज्ञा भंग का किसे भय है वा किसे नहीं जिण आणा भंगभयं, भवभयभीआण होइ जीवाणं। भवभय अभीरुयाणं, जिण आणा भंजणं क्रीडा।। ५६।। अर्थ:- जो जीव संसार से भयभीत हैं उन्हें जिनराज की आज्ञा भंग करने का भय होता है और जिन्हें संसार का भय नहीं है उनके जिन आज्ञा भंग करना खेल है।। ५६ ।।
जिनदेव की प्राप्ति भी अप्राप्ति समान को असुआणं दोसो, जं सुअ सुहियाण चेयणा णट्ठा। धिद्धि कम्माण जओ', जिणो वि लद्धो अलद्धत्ति।। ६०।। अर्थः- जब जिनवाणी को समझने वाले भी नष्टबुद्धि होकर अन्यथा
१. टिळ-कम्माण जओ' के स्थान पर 'कम्माणुदओ' पाठ उचित प्रतीत होता है।
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