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योगसार प्रवचन (भाग-२)
गुण तथा स्वभाववाला विचारना, जिससे वस्तु का विचार समभाव से होता है । राग, द्वेष और सांसारिक विकल्प जीते जा सकते हैं । उसमें दूसरे का विचार नहीं है इसलिए उसमें राग की तीव्रता नहीं आती । गुणों की भावना करते-करते ही स्वानुभव की शक्ति आती है... इन गुणों का बहुमान करते-करते ... भले ही विकल्प है, उसमें से हटकर अन्दर में एकाकार हो, उसे अन्तर का अनुभव कहा जाता है। विकल्परहित भाव में आना वह ही स्वानुभव है । लो ! भेदरहित, विचाररहित होकर अन्दर में अवलम्बन करना, विकल्परहित अनुभव है । अन्यभेद है वह तो विकल्प है।
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'समयसार' का दृष्टान्त दिया है। देखो, शक्ति का वर्णन है सही न, ठीक रखा है सैंतालीस शक्तियाँ। यह आत्मा अनेक प्रकार की शक्तियों का समुदाय है। एक - एक नय से एक-एक गुण की पर्याय अथवा शक्ति का विचार करने से आत्मा का खण्डरूप विचार होता है । देखो, एक-एक गुण का विचार करने से एक-एक गुणरूप में विकल्प उत्पन्न होता है । इसलिए खण्डरूप विचार छोड़कर मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि यह अखण्ड है तो भी अनेक भेदवाला है, एक है... अन्दर भले ही भेद है, भेद है तथापि दृष्टि में भेद नहीं है। एक है परम शान्त है निश्चय है, चैतन्यमयी ज्योतिस्वरूप है। लो, एक गाथा में पचास मिनट गये। आँकड़े अधिक न? एकदम छोड़ दे ऐसे नहीं थे ।
मुमुक्षु : पाँच नहीं लिया ?
उत्तर : पाँच कहा न ! दो-तीन बार कहा। चाहे जहाँ से लो, पाँच दो बार आता है। पाँच भाववाला लो, पाँच गुणवाला लो, दो बात में से चाहे जो लो। यहाँ भी दो बार आया है। एक बार पञ्च और फिर पञ्च उसमें चाहे जो पाँच बोल लो, ज्ञान-दर्शन- चारित्रवीर्य... अब, ७७... !
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दो को छोड़कर दो गुण
विचारे
छंडिवि बे गुण सहिउ जो अप्पाणि वसेइ । मइँ भणइ लहु णिव्वाणु लहेइ ॥ ७७ ॥
सामि