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गाथा - ७५
अवस्था से कर्म सहित हूँ । अशुद्धता है (वह) मेरे त्रिकाल में है नहीं, ऐसी दृष्टि रखकर अपने आत्मा में एकाकार होता है । कहो, समझ में आया ? यह पचहत्तर गाथा हुई । अरहन्त का दृष्टान्त दिया है। जो कोई अरहन्त भगवान को द्रव्य-गुण- पर्याय द्वारा यथार्थ जानता है... परमेश्वर जो अरि अर्थात् राग, द्वेष, अज्ञान, शत्रु, उन्हें जिसने नष्ट किया ऐसे परमात्मा अरहन्त, ऐसे अरहन्त के द्रव्य अर्थात् वस्तु, गुण और पर्याय - अवस्था ऐसी निर्मल, उनके गुण परिपूर्ण निर्मल, उनका धारक द्रव्य निर्मल, इस प्रकार जो परमात्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानता है, वह आत्मा को जानता है । और उसे सम्यक् ( प्रकार से ) मोह का नाश हुए बिना नहीं रहता । सम्यक् प्रकार से मोह का नाश होकर, सम्यक् अनुभव हुए बिना नहीं रहता। यह प्रतीति का जोर लाना कहाँ से ? करना कहाँ से ? भस्म-वस्म खाने से प्रगट होता है या नहीं ? लो, यह भस्म ऐसा कहते हैं न ! तांबे की भस्म, धूल की भस्म । धूल भी नहीं, सुन न ! यह तो अन्दर के बल की कला की बात है। जो कला अन्दर से जागे, तब स्वयं माने ऐसा है। इसलिए अरहन्त का दृष्टान्त दिया है । ७६ गाथा में गुण की संख्या की बात करेंगे। दो, तीन और चार दृष्टान्त देंगे।
( श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव !)
धर्म के स्तम्भ : आचार्यदेव
अहो ! महान सन्त-मुनिवरों ने जङ्गल में रहकर आत्मस्वभाव का अमृत बहाया है । आचार्यदेव धर्म के स्तम्भ हैं, जिन्होंने पवित्र धर्म को टिकाए रखा है, गजब का काम किया है। साधकदशा में स्वरूप की शान्ति का वेदन करते हुए परिषहों को जीतकर परम सत् को जीवन्त रखा है । आचार्यदेव के कथन में केवलज्ञान की झङ्कार आती है । महान शास्त्रों की रचना करके बहुत जीवों पर अमाप उपकार किया है। रचना तो देखो ! पद -पद में कितना गम्भीर रहस्य भरा है ! यह तो सत् की प्रसिद्धि है, इसकी समझ में तो मुक्तिरमा के वरण करने का श्रीफल है अर्थात् समझनेवाले को मोक्ष ही है ।
(- दृष्टि ना निधान, बोल १२१ )