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________________ वीर संवत २४९२, श्रावण शुक्ल १०, गाथा १०६ से १०८ बुधवार, दिनाङ्क २७-०७-१९६६ प्रवचन नं.४५ यह योगसार शास्त्र है। १०६ गाथा चलती है। परमात्मा का स्वरूप बहुत वर्णन किया न? जिन, शंकर, ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, इत्यादि बहुत; और पाँच परमेष्ठी का स्वरूप वर्णन किया। उसमें यह कहा कि इस प्रकार ऊपर कहे हुए लक्षणों से लक्षित जो परमात्मा निरंजनदेव है.... एव हि लक्खण-लक्खियउ परमात्मा, जिसका यहाँ वर्णन किया, पाँच परमेष्ठी अथवा ब्रह्मा आदि – ये सब परमात्मा के स्वरूप के लक्षणवाले हैं। तथा जो अपने शरीर के अन्दर बसनेवाला आत्मा है, इन दोनों में कोई भेद नहीं है। 'देहहँ मज्झहिं सो वसइ, तासुण विजइ भेउ' व्यवहार से पर्याय में, राग में, निमित्त के संयोग में भेद होने पर भी, आत्मा में कर्म के निमित्त के सम्बन्ध में विचित्रता-विविधता अवस्था में होने पर भी, उस दृष्टि को बन्द रखकर, उस लक्ष्य को बन्ध रखकर, वह है अवश्य, उसका ज्ञान रखना। समझ में आया? भगवान आत्मा की वर्तमान दशा में कर्म के निमित्त के वश अनेक प्रकार की विविधता और विचित्रता दशाएँ एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के बहुत प्रकार (पड़ने पर भी) उस लक्ष्य को उस दृष्टि को लक्ष्य में रखने पर भी, उसे भूलकर एक आत्मा परमात्मस्वरूप हूँ, वस्तुदृष्टि द्रव्यस्वभाव असली चैतन्यबिम्ब आत्मा, वह परमात्मा है - ऐसा साधकजीव को धर्मात्मा को आत्मा की निश्चयदृष्टि करना। समझ में आया? भगवान परमात्मा में और मुझ में कुछ भेद नहीं है; भेद है, वह व्यवहारनय के विषय में जाता है। समझ में आया? वस्तुस्वरूप से चिद्घन आनन्दकन्द आत्मा को एकरूप दृष्टि से देखने से वह भेद परमात्मा और इसमें दिखता है, वह व्यवहार से है; वस्तु की दृष्टि से भेद है नहीं। इस प्रकार आत्मा को देखना। फिर अन्त में है, देखो!
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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