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गाथा - १०५
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एक जीव की अनन्त गुनी पर्यायें .... समझ में आया ? जितने गुण हैं, उनकी प्रत्येक समय की पर्याय है या नहीं ? ' पर्याय विजुत्तम् दव्वम्' अथवा 'पर्याय विज्जुत्तम् गुण' नहीं होता । आहा... हा... ! समझ में आया ?
आत्मा को शिव कहते हैं क्योंकि (आत्मा) कल्याण का कर्ता है । इसलिए इस आत्मा का पूर्ण स्वरूप, उसकी श्रद्धा, ज्ञान और ध्यान करने से कल्याण होता है, इसलिए इस आत्मा को शिव कहा जाता है। दूसरा जगत् का शिव कहते हैं, वह नहीं।
वह शंकर कहने में आता है। आनन्द का लाभ देनेवाला आत्मा है। भगवान आत्मा ऐसे अनन्त गुणवाला परमात्मा स्वयं सर्वज्ञ परमेश्वर ने देखा, वैसा आत्मा । उस आत्मा को यहाँ शंकर कहा जाता है । शंकर कहते हैं वह यह आत्मा - ऐसा नहीं । ऐसे आत्मा में अनन्त गुणका पिण्ड प्रभु का ध्यान करने से आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द - सुख पड़ा है, वह उस दशा में आनन्द की प्राप्ति सम्यग्दर्शन - ज्ञान होने पर होती है; इसलिए उस आत्मा को शंकर कहा जाता है। समझ में आया ?
वह विष्णु है। समझ में आया ? वह केवलज्ञान की अपेक्षा से सर्व लोकालोक का ज्ञाता होने से सर्व व्यापक है । इस अपेक्षा से व्यापक, हाँ ! ऐसे क्षेत्र से नहीं । भगवान ज्ञान..... प्रवचनसार में लिया है न ? ज्ञेय प्रमाण ज्ञान, ज्ञेय लोकालोक (गाथा २३) आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाण और ज्ञेय लोकालोक । समझ में आया ? प्रवचनसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने बहुत लिखा है, बहुत रखा है। समयसार (आदि में) तत्त्वों से भरे हुए ढेर पड़े हैं, कहीं ढूँढ़ने बाहर के किसी का आधार लेने की आवश्यकता नहीं है, इतना भरा अन्दर । समझ में आया ?
विष्णु उसे कहते हैं, उसके एक ज्ञान की दशा के प्रगट विकास में उसकी - गुण की शक्ति ही ऐसी है कि लोकालोक को जानने की ताकत रखती है। वह प्रगट दशा लोकालोक को पहुँचती है .... जानने के लिए, हाँ ! क्षेत्र से पहुँचती है या उसकी पर्याय में पड़ जाती है - ऐसा नहीं है । उस सम्बन्धी का ज्ञान पूरा स्वयं के ज्ञान में आ जाता है, इसलिए ऐसा भी आचार्य ने कहा कि लोकालोक व्यापक, वह ज्ञान ज्ञेयगत है और ज्ञेय ज्ञानगत है। दोनों बातें ली हैं न? प्रवचनसार में दोनों लिया है। यह समझाने के लिए।