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गाथा - १०४
करनी ? इसका पता नहीं पड़ता। समझ में आया ? महा दृष्टि से अर्थात् ? सम्यग्दृष्टि महान दृष्टि है, महान दृष्टि है। उस दृष्टि के द्वारा परमात्मा ऐसा है - ऐसी उसके अन्तर में प्रतीति, श्रद्धा, अनुभूति में भान होकर आने के बाद उसमें लीनता करना है। तब मेरी मुक्ति होगी। समझ में आया ?
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८० वीं गाथा में कहा न ? जो जाणदि अरहंतं, फिर अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है कि सम्यग्दर्शन (हुआ) परन्तु यह प्रमाद चोर है, हाँ ! यह मेरा माल न लूट ले (जाए) इसमें ऐसा लिखा है । वह प्रमाद चोर है, हाँ ! यह कहते हैं कि मुझे भान हुआ भले परन्तु यह प्रमाद मेरा लूट न ले जाये, इसलिए मैं सावधान होकर स्वरूप की सावधानी करता हूँ । प्रमाद मिटाकर पुरुषार्थ की कमर बाँधकर बैठा हूँ। आहा... हा.... ! समझ में आया ?
इसलिए कहते हैं, धर्मात्मा जीव ने धर्मी आत्मा ऐसा भगवान, उसका उसे ध्यान – धर्मध्यान करना, लो ! उसका नाम धर्मध्यान है। छोटा भाई ! यह सब सूक्ष्म है, हाँ ! वहाँ सब कहीं (नहीं है)। महा कठिनता से सुनने को मिला । आहा... हा... ! परमेश्वर सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ वीतराग की वाणी आयी, उसमें यह तत्त्व आया है। भाई ! 'केवली पण्णत्तो धम्मो शरणं' केवली पण्णत्तो धम्मो उत्तमं ' मांगलिक तीन बोल आते हैं - चत्तारि मंगल, चत्तारि उत्तम, चत्तारि शरणं । यह सब भगवान ! यह शरण तेरी आत्मा में पड़ा है - ऐसा कहते हैं । भाई! आत्मा तेरा शरण है। उस समय कहाँ ऐसे झपट्टे मारता है ? रोग आवे और वहाँ कहाँ नजर डाली ? भगवान को सम्हाल ! यह तो विकल्प है। समझ में आया ? वहाँ कहीं शरण नहीं होती। भगवान भगवान भगवान भगवान भगवान भगवान भगवान किया होगा तो वह अन्तर्जल्प का राग है। तेरा भगवान अन्दर रागरहित है, उसकी शरण ले तब इसमें वास्तविक अरहन्त और सिद्ध की शरण ली - ऐसा कहा जाता है । १०४ ( गाथा पूरी ) हुई । १०५ !
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आत्मा ही ब्रह्मा-विष्णु-महेश है
सो सिउ संकरू-विण्हु सो सो रूद्द वि सो बुद्ध ।
सोईसरू बंभु सो सो अणंतु सो सिद्धु ॥ १०५ ॥