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गाथा - १०४
परिणमित अस्तित्वतत्त्व है - ऐसे अरहन्त को लक्ष्य में लेना । समवसरण नहीं, वाणी नहीं, शरीर नहीं। सिद्ध को तो कोई दूसरा है नहीं, वह तो है एकदम निर्मल पर्याय से परम पारिणामिकदशा से पूरे हैं। आचार्य का ध्यान भी उनके विकल्प, वाणी और रंजन - राग के परिणाम को लक्ष्य में न लेना। उनका आत्मा जिस प्रकार वीतरागीदशा से परिणमित हुआ, उसे लक्ष्य में लेना। ऐसे उपाध्याय को भी इस प्रकार और साधु को भी इस प्रकार (लक्ष्य में लेना) ।
क्रिया ध्यान में न लेकर केवल उनके आत्मा का आराधन ही निश्चय आराधन है । देखो ! जिसे आत्मा कहते हैं... अट्ठाईस मूलगुण के विकल्प, वह आत्मा नहीं; वह पुण्य-परिणाम है। आचार्य, उपाध्याय... आचार्य को शिक्षा-दीक्षा देने का विकल्प उठता है, वह आस्रव तत्त्व अथवा शुभतत्त्व है, शुभ आस्रव है । वह आत्मा नहीं है । उसकी - आत्मा की स्थिति जो है, उसे श्रद्धा - ज्ञान में लेकर आत्मा में यह सब है ऐसा उसे ध्यान करना चाहिए। आहा... हा...! समझ में आया ?
समयसार कलश में कहा है। आधार दिया है। आत्मा का स्वरूप.....
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा
तत्त्वामात्मनः ।
एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ॥ २३९॥
आत्मा का स्वरूप सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक्चारित्रमय एकरूप है, यही एक मोक्ष का मार्ग है । देखो, एक एव सदा सेव्यो । मोक्षमार्ग एक ही है, भाई ! यह स्वभाव महान परमात्मा, महा परमात्मा, स्वयं परमात्मा महा है। ऐसे परमात्मा की अन्तर -श्रद्धा ज्ञान और रमणता (हो), वह मोक्षमार्ग निर्विकल्प एक ही है। समझ में आया ? दूसरा मोक्षमार्ग तो निमित्त देखकर कथन - निरूपण दो प्रकार का है । वस्तु दो प्रकार से नहीं। समझ में आया ?
भाई ने 'टोडरमलजी' ने यही कहा है। अपने भी आता है न ? निरूपण, नहीं आया था ? (समयसार) ४१४ गाथा है । अन्तिम गाथा, उस दिन कहा था । श्रमण और श्रमणोपासक भेद से दो प्रकार के द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग है - ऐसा जो निरूपण प्रकार ... टोडरमलजी ने घर का शब्द नहीं रखा है। जो शैली आचार्य की है, वह शब्द ही रखा है । पण्डितजी !