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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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तो उनको क्या ध्यान है? ऐसा प्रश्न हुआ है। भाई! यह तो अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करते हैं न! यह उनका ध्यान कहो, उनका आनन्द का अनुभव (कहो)। आहा...हा...! समझ में आया? प्रवचनसार। अन्तिम गाथाएँ आती हैं न? ज्ञेय अधिकार। आहा...हा...!
यह सब अस्ति है, हाँ! यह सब बात नहीं। इसलिए शास्त्र में वह बात आती है न? षटखण्डागम में, 'षट पद प्ररूपणा'। पण्डितजी ! यह पहला शब्द आता है न? षट् पद प्ररूपणा । षट् खण्डागम की पहली शुरुआत आवे जब (वहाँ ऐसा आता है) षट् पद प्ररूपणा। तथापि पदार्थों की कथन शैली आती है। षट खण्डागम का पहला शब्द है, हाँ! उसमें भी ऐसा आता है। श्वेताम्बर में आता है, मुझे तो श्वेताम्बर में से पता है। अनुयोग द्वार में, पहले आया शब्द, उसमें यही आया, षट् पद प्ररूपणा। जो पदार्थ जिस प्रकार है, उसे उस पदार्थ को वाणी के पद द्वारा उसका कथन करना। सत् हो, उसका कथन है । न हो, उसका कथन नहीं - ऐसी पहली शुरुआत ही षट्खण्डागम में वहाँ से की है। समझ आया?
आत्मा वह है, ऐसा है। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु – ऐसी वीतरागी दशाएँ साधक को भले ही असंख्य हैं और सिद्ध की, केवली की अनन्त पर्याय है और उन सब पर्यायों को पिण्ड भगवान आत्मा है - ऐसा सत् है। वह सत् पदार्थ ऐसा है, अस्तित्ववाला भगवान इस प्रकार है। उसकी अन्तर में श्रद्धा (करे), राग का आश्रय छोड़कर उसकी श्रद्धा (करे)। जब स्वभाव वीतराग है तो उसकी वीतरागदशा द्वारा ही उसकी प्राप्ति होती है। स्वानुभूत्या चकासते। समझ में आया? उस वस्तु में राग नहीं है कि जिससे राग द्वारा उसकी प्राप्ति होवे।
भगवान आत्मा अकषाय वीतराग रस से भरपूर पड़ा है। क्या कहना उसकी बात, कहते हैं । समझ में आया? ऐसे आत्मा का पंच परमेष्ठी के रूप में ध्यान करना। समझ में आया? वह आत्मा ही स्वयं ध्यानगर्भित है। आत्मा के ध्यान में ही पाँचों परमेष्ठी का ज्ञान गर्भित है।शरीरादि की क्रिया ध्यान में न लेकर.... अरहन्त का समवसरण और वाणी और शरीर को लक्ष्य में न लेकर उनका आत्मा इस प्रकार केवलज्ञानादि