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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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श्रद्धा कहाँ हुई? खरगोश के सींग की श्रद्धा करनी है? कुछ वस्तु हो उसकी करनी है न? तो यह चीज आनन्द और ज्ञानमूर्ति पूर्ण है – ऐसा उसके ज्ञान-श्रद्धान में आये बिना, उसे आनन्द का स्वाद आये बिना, उसे सच्ची प्रतीति नहीं हो सकती। इसलिए सम्यग्ज्ञान में स्वरूपाचरण और आनन्द का अंश स्वाद में होता है, अनन्त गुण का अंश होता है। समझ में आया? उसे यहाँ विशेष पूर्ण हो, उसे यथाख्यात कहते हैं। पूर्ण स्थिरता और पूर्ण आनन्द उसे यथाख्यात कहते हैं । परम यथाख्यात तेरहवें (गुणस्थान में)। वह अनन्त आनन्द हो गया, अनन्त आनन्द हो गया। उसे परम यथाख्यात कहा है। वह यथाख्यातचारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है।
विशेष कहेंगे.... (मुमुक्षु - प्रमाण वचन गुरुदेव!)
अहा! अद्भुत मुनिदशा मुनिराज बारम्बार वीतरागतारूप से, जिसमें अनन्तगुणों का वास है ऐसे निज चैतन्यनगर में / अन्तर अतीन्द्रिय आनन्द के धाम में प्रविष्ट होकर अद्भुत ऋद्धि को अनुभवते हैं। अहा! अद्भुत मुनिदशा! ।
मुनिराज ने शुभोपयोग से भिन्न होकर अन्तर में आनन्द के नाथ का अनुभव किया है; जो आनन्द की दशा प्रगट हुई, उसे रखते हैं और जो प्रगट नहीं हुई, उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे मुनिराज निर्विकल्पदशा से परिणमित होकर, बाह्य से शून्य होकर अन्तर में प्रवेश करते हैं; वहाँ शून्यता नहीं है। मुनि तो अतीन्द्रिय आनन्द की अद्भुतदशा को अनुभवते हैं।
अहा! उन भावलिङ्गी/आनन्द की मस्ती में झूलनेवाले मुनिराज की क्या-क्या बात कहें! वर्तमान में तो उनके दर्शन भी दुर्लभ हो गये हैं।
(-वचनामृत प्रवचन, पृष्ठ २७४)