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________________ गाथा - १०३ हुआ तो यहाँ राग-द्वेष में उसने अस्तित्व स्वीकार किया। वहाँ सब ही स्वीकार । श्रद्धा वहाँ, ज्ञान वहाँ, आचरण वहाँ । अब गुलाँट खायी श्रद्धा ने ओ...हो... ! मेरा परमात्मा पूर्ण प्रभु तो मैं ही हूँ - ऐसे निज कारणपरमात्मा की दृष्टि, अवलोकन की श्रद्धा की हुई, वहाँ भगवान! कुछ स्थिर हुए बिना किस प्रकार हुई ? आहा... हा... ! यह स्थिरता है, उसका नाम स्वरूपाचरणरूप में कहते हैं । कहीं शास्त्र की गाथा में सीधा नहीं निकले परन्तु न्याय से तो समझना चाहिए न ? ३७८ चारित्रमोह की कषाय की पच्चीस प्रकृति है । अनन्तानुबन्धी चारित्रमोहनीय की जब गयी, तब कुछ हुआ, चारित्र में कुछ हुआ या नहीं ? भले उसे देशसंयम न कहो, सकल संयम नहीं। संयम के स्थानों के जो प्रकार गोम्मटसार में वर्णन किये हैं, उन अमुक स्थान तक में संयम नहीं कहलाता तो वह भले हो परन्तु किंचित स्थिरता प्रगटी ऐसा तो कहना पड़ेगा या नहीं। इसमें विवाद किसका ? इसमें तकरार किसकी ? भाई ! किसकी होवे भूल, ख्याल में न होवे तो उसे इस प्रकार समझना चाहिए। 'सर्व जीव है ज्ञानमय' आया न अपने ? सामायिक में... 'सर्व जीव ज्ञानमय' प्रभु ज्ञानमय है न प्रभु! यह तो एक समय की, एक समय की भूल, हाँ! एक समयमात्र भूल उसमें टिकती है, दो समय कभी भूल टिकती ही नहीं । भूल, पर्याय है। समझ में आया ? आहा... हा...! त्रिकाल भगवान अनन्त गुण से शाश्वत् तत्त्व अन्दर है । उसकी जहाँ दृष्टि हुई तो स्वरूपाचरणचारित्र साथ ही प्रगट होता है, अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद भी साथ में आता है और प्रभुता का, एक प्रभुता नाम का गुण जो है, उसकी प्रभुता पर्याय में भी प्रभुता अंश प्रगट होता है । ईश्वरता का अंश प्रगट होता । ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव को स्वरूपाचरण होता है । यह शक्तियाँ प्रगट होने पर जब ज्ञानी अपने उपयोग को अपने आत्मा में स्थिर करता है, तब ही स्वरूप का अनुभव आता है और अतीन्द्रिय आनन्द स्वाद आता है। अविरत सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान में इस सुख का प्रगटपना हो जाता है । यह वस्तु है, उसे अतीन्द्रिय स्वभाव, स्वभाव है, उसका स्वाद न आवे तो उसकी
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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