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गाथा - १०२
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हैं। रागी प्राणी (को) राग है न! ऐसा नहीं होता, भाई ! ऐसा मार्ग नहीं होता ( - ऐसा कहे उसमें) इतना भी अन्दर प्रशस्त कषाय का अंश है। वीतरागमार्ग में इतना वह पोषाता नहीं, भाई ! वीतरागरस ऐसा प्रभु! आँख में कदाचित् छोटा कण जरा समाये, यह समाये नहीं इसे
ऐसा ज्ञायकस्वरूप... दूसरा तो राग-द्वेष कहाँ रहा परन्तु एक नय को मुख्य करके निश्चय ऐसा है ( – ऐसा स्थापित करे) 'निश्चय नयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाण की' यह - • विकल्पवाले नय नहीं, हाँ ! दूसरे अबद्ध, बद्ध... यह तो अबद्ध भी इसमें वस्तु यह बराबर है परन्तु यहाँ जहाँ स्थापना में जरा वीर्य, वीर्य जरा वहाँ रुकता है और इतना जरा राग का अंश, वीतरागरस में वह भी नहीं पोषाता है । चल नहीं सकता है - ऐसा स्वरूप है। भाई ! समझ में आया ?
कहते हैं, भगवान आत्मा गृहस्थदशा में रहा होने पर भी, वह स्वयं कार्यों में उसकी लीनता/ एकाकार नहीं। समझ में आया ? और राग के उदय के इतने भाग को भी समपने के साथ मिलाने से उस विसमता का अंश, रोग जानता है। समझ में आया ? मोक्ष का उपाय मूल में एक सम्यग्दर्शन की शुद्धि है। वीतराग यथाख्यात चारित्र और केवलज्ञान की प्राप्ति का यही उपाय है। भगवान आत्मा उस राग के अंश के मैल आदि द्वेष आदि उन्हें स्वभाव से जहाँ भिन्न जाना है - ऐसे सम्यग्दर्शन में जहाँ आत्मा का आश्रय है - ऐसा समभावी भगवान सम्यक्... सम्यक्... सम्यक्... प्रतीति में आया है, उसके जोर से उसे वीतरागचारित्र और केवलज्ञान के लाभ का यह सम्यग्दर्शन ही उपाय है - ऐसा यहाँ कहा है। समझ में आया ? आहा... हा...!
यह अभी अपने भाई ने गाया है, नहीं ? आनन्दघनजी का गाया है न ? सेठिया ने कुछ गाया है, एक शब्द लिखा है। 'गगन मण्डल में' हाँ ! आया है या नहीं ? उसमें कहीं आया है। आनन्दघनजी ने यह गाया है, आनन्दघनजी... 'गगन मण्डल में गौवा विहाणी, वसुधा दूध जमाया, माखन था सो विरला रे पाया - सन्तों, छाछ जगत भरमाया .... गगन मण्डल में अधबिच कुआ, वहाँ है अमी का वासा, सुबुरा होवे सो भर-भर पीवै सन्तों, नू जावे प्यासा अबधु, सो जोगी गुरु मेरा, इस पद का करे रे निवेणा'। 'गगन मण्डल में गौवा विहाणी, वसुधा दूध जमाया, माखन था सो विरला रे पाया, पण छाछ जगत