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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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___ एक परमाणु एक समय में चौदह ब्रह्माण्ड चीरे, गति करे, पहले समय में गति नहीं थी, और दूसरे समय में हुई – उसका कारण कौन? एक परमाणु पॉइन्ट है, वह वस्तु ऐसी कुछ है, एक पॉइन्ट परमाणु है, वह एक समय में ऐसी है, दूसरे समय में एक प्रदेश में जाये, तीसरे समय चौदह ब्रह्माण्ड जाये – कारण कौन? पर्याय की विस्मयता ज्ञानी को भी नहीं आती, यह उसका स्वभाव है। दूसरे समय में भले ही फिर स्थिर हो जाये, वह एक समय में ऐसा कैसे? ऐसा कैसे? उस समय का उसका ऐसा स्वभाव है। समझ में आया? ऐसा ज्ञानी ने छह द्रव्य के मूलगुण, पर्याय के स्वभाव को जाना है। समझ में आया?
ऐसा दृढ़ ज्ञान और वैराग्य के धारक सम्यग्दृष्टि पूर्वकर्मों के उदय से यद्यपि गृहस्थपद में गृहस्थ के योग्य अनेक कार्य करते.... करते अर्थात् दिखते हैं। करते दिखाई देते हैं तो भी वे-वे कार्य आसक्तिभाव से नहीं करते हैं। यहाँ परिहार है न ! परिहार, परिहार करना है। नहीं... नहीं... नहीं। भाव में जुड़ते हैं - ऐसा दिखता है, मानो करते हैं. यह हिलना और चलना और पकाना, खाना और समस्त क्रियाओं का ज्ञानी कर्ता नहीं होता। ज्ञाता रहकर ज्ञान उन्हें अलग रखता है। आहा...हा... ! समझ में आया?
कषाय के उदय को रोग जानता है। देखो, धर्मी तो कषाय के राग को रोग जानता है। वह रोग भी पुरुषार्थ से मिटता है – ऐसा जानता है। मेरे पुरुषार्थ की गति इतनी विपरीत है, इसलिए होता है। मेरे स्वभाव में उसका मैल नहीं है, फिर भी ज्ञानी जानता है कि यह राग (मेरी कमजोरी के कारण हुआ है)। कर्म (मुझे) राग करावे तो कर्म के ऊपर द्वेष आता है। समझ में आया। आहा...हा...! मारा डाला! कर्म के ऊपर द्वेष आया परद्रव्य... यह कर्म कुछ कमजोर पड़े न तो ठीक; फिर उसके ऊपर राग आया। सूक्ष्म व्याख्या है. राग-द्वेष की. हाँ! सक्ष्म व्याख्या है। सत्य की स्थापना करना है न? सत ऐसा है, रागी को, हाँ! केवली की बात नहीं है – ऐसा सत् है, वहाँ भी जरा राग का अंश है और ऐसा नहीं होता (- ऐसा कहे) वहाँ भी जरा कषाय के द्वेष का अंश है। भगवान तो वीतराग रस स्वरूप है। समझ में आया?
एक नय को मुख्य करके, दूसरे को गौण करके स्थापन करना। छद्मस्थ है न? राग साथ में है इसलिए... हाँ! वस्तु के लिए नहीं। केवली सब कहते हैं और सब स्थापित करते