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गाथा-९९
ज्ञाता-दृष्टा के स्वभावमय है – ऐसा देखने से समभाव-वीतरागता की पर्याय उत्पन्न होती है और दूसरे सब जीव ज्ञानमय है - ऐसा देखने से, उनकी कर्म के वश विविधता देखे तो यह ठीक है, यह अठीक है – ऐसे राग-द्वेष हों, परन्तु कर्म के वश हुई उनकी विविधता उसे न देखने से वे सब ज्ञानमय हैं. सब चैतन्यमय हैं: इस प्रकार दसरे को भी चैतन्यमय. ज्ञानमय देखने से कर्म के वश हुई उनकी विचित्रता में यह ठीक है, अठीक है – ऐसी बुद्धि, ज्ञानमय देखनेवाले को नहीं रहती। समझ में आया?
सर्व जीव है ज्ञानमय । देखो! सर्व लिये, हाँ! स्वयं तो है परन्तु उसका अर्थ यह हुआ। मैं एक ज्ञानमय जानने-देखनेस्वरूप हूँ – ऐसी जिसने दृष्टि की, उसे स्वयं में भी समभाव की वीतरागता की उत्पत्ति होती है। वह समस्त जीवों को द्रव्य-तत्त्वदृष्टि से देखे तो वे सब भी भगवान ज्ञानमय है; इसलिए उनकी विषमता को ठीक-अठीक रूप नहीं देखता। विषमता कर्म के आधीन, ज्ञानवरणीय के आधीन, कम-ज्यादा ज्ञानपना हो; दर्शनावरणीय के आधीन-क्षयोपशम चक्षु-अचक्षु का कम-ज्यादा हो; मोहनीय के आधीन रागादि, मिथ्याभ्रान्ति आदि हो; अन्तराय के आधीन स्वयं वश होकर करे, हाँ! विकार आदि कमजोरी दिखे या आयुष्य के आधीन (कोई) दीर्घ आयष्य और कोई थोडे आयुष्यवाला दिखे; नाम के आधीन भिन्न-भिन्न, सुन्दर-असुन्दर, सुडौल-अडौल – ऐसे शरीर के आकार दिखें परन्तु ये तो दूसरी भिन्न चीज है। गोत्र के आधीन हुई नीच और उच्चकुल की अवस्था देखे तो पर्यायदृष्टि से देखना है, यह जानने का है। समझ में आया? वेदनीय के निमित्त से किसी को धनवान-सधन, निर्धन देखे तो वह तो संयोग से देखना (हुआ)। वह तो जानने योग्य है।
वस्तु ज्ञानमय है – ऐसे देखने से संयोग के आधीन किसी की सधनता, निर्धनता की विशेषता को जाननेयोग्य मानकर, उसमें यह ठीक-अठीक करने जैसा नहीं रहता। कहो! यह सेठ है और यह गरीब है, वह तो कर्म के आधीन, वेदनीय के आधीन, प्राप्त संयोग के आधीन, देखने की बात है। परन्तु संयोग के आधीन न देखे और सब आत्मा ज्ञानमय चैतन्य प्रभु है तो इस दृष्टि से सबको देखने पर भी ठीक-अठीक के संयोग से उत्पन्न होता राग-द्वेष धर्मी को नहीं होता है। समझ में आया?