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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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में वर्तता है परन्तु पुण्य की इच्छा नहीं रखता।लो, समझ में आया। ओहो...हो... ! कहाँ पशु ज्ञानी और कहाँ मिथ्यादृष्टि सेठ और मिथ्यादृष्टि देव!
मुमुक्षु : मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिङ्गी...
उत्तर : द्रव्यलिङ्गी साधु । समझ में आया? जिसे आत्मा के आनन्दस्वभाव की रुचि नहीं है और पुण्यभाव की प्रीति-रुचि है, वह नौवें ग्रैवेयक में होने पर भी आकुलता का वेदन करता है। आकुलता... आकुलता... आकुलता... । नीचे सातवें नरक में नारकी पड़ा है, नौवें ग्रैवेयक और सातवाँ नरक। नारकी पड़ा है, कोई बड़ा राजा-महाराजा मरकर गया तो भान हो गया कि ओहो...हो...! सन्तों ने हमें कहा था कि स्वभाव का साधन करने में तू स्वतन्त्र है, बाहर के किसी साधन की आवश्यकता नहीं है। तेरा धर्म करने में पैसे का व्यय, शरीर का नाश, किसी बलवान पुरुष की मदद की कोई आवश्यकता नहीं है। (तब) नहीं माना। (अब) मैं यहाँ नरक में आया ऐसी वेदना का ख्याल छोड़कर शान्तस्वरूप आत्मा के सन्मुख होकर सातवें नरक में नारकी समकिती आनन्द लेता है और नौंवे ग्रैवेयक में मिथ्यादृष्टि जीव दुःख भोगता है। उसका कारण-हेतु स्वभाव की दृष्टि, अनुभव हुआ, शुद्ध चिदानन्दमूर्ति हूँ, बस! उस अनुभव में आनन्द है और अज्ञानी को पुण्य की प्रीति पड़ी है, वह भले ही स्वर्ग में जाये तो भी अकेली आकुलता का वेदन करता है।
प्रवचनसार की बात की है। पुण्य है अवश्य ऐसा। परन्तु उस पुण्य के कारण से दु:खी है। देवादि तृष्णा के कारण से दुःखी होते हैं। पुण्य का फल है, पुण्य का अस्तित्व है, उसका फल भी है परन्तु तृष्णा में दुःखी है।
भावनिर्ग्रन्थ ही मोक्षमार्गी है जइया मणु णिग्गथु जिय तइया तुहुँ णिग्गथु। जइया तुहुँ ग्गिंथं जिय तो लब्भइ सिवपंथु॥७३॥
यदि तुझ मन निर्ग्रन्थ है, तो तू है निर्ग्रन्थ। जब पावे निर्ग्रन्थता, तब पावे शिवपन्थ॥