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गाथा-७२
करता। समझ में आया? जिसे आत्मा का भान हुआ और सम्यग्दर्शन आदि हुए और किसी नाग को पञ्चम गुणस्थान होता है। आत्मा की श्रद्धा-ज्ञान उपरान्त शान्ति बढ़ जाती है वह नाग चार पहर तो बिलकुल नहीं लेता, बाहर नहीं जाता, उसमें भी उसे निर्दोष आहार मिले एकेन्द्रियादि (वह लेता है) और अन्दर शद्धोपयोग में आनन्द मानता है। ओहो...हो...! समझ में आया!
___ यह चक्रवर्ती आदि और अरबोंपति सेठिया आदि को अपने शुद्धस्वरूप का भान नहीं, श्रद्धा और ज्ञान की रुचि नहीं, वे पुण्य-पाप में प्रेम और रुचि करते हैं तो अकेली आकुलता को वेदते हैं। अरबोंपति सेठ आकुलता को (वेदता है)। मेढ़ी में... मेढ़ी कहते हैं ? कमरे में बैठे-बैठे झूला झूलें, सोने की साँकल है, अकेली आकुलता (भोगते हैं) क्योंकि आत्मा अखण्डानन्द की रुचि तो है नहीं; पुण्य-पाप की रुचि में अकेली आकुलता का वेदन करते हैं। उस महल में विराजकर आकुलता वेदते हैं। वे पक्षी वृक्ष की डाल पर दो पैर से (लटके / बैठे हुए) पूरी रात अन्तर में शुद्ध प्रभु आत्मा ज्ञानानन्द चैतन्य प्रभु की अनुभव दृष्टि हुई है और पुण्य-पाप के भाव को विकार, दुःखरूप देखकर छोड़ने योग्य मानते हैं । स्वभाव ही आदर करने योग्य मानकर शुद्ध व्यापार अन्दर करते हैं तो वह पशु भी आनन्द को भोगते हैं । आहा...हा...! समझ में आया?
नरक में भी समकिती को आनन्द है। बाहिर नारक कृत दुःख भोगे' यह आता है न? अन्दर सुख की गटागटी... नारकी को गटागटी... । पीड़ा... पीड़ा... पीड़ा... बाहर संयोग (ऐसे) ओहो...हो... ! जन्में तब से सोलह रोग पीड़ा... पीड़ा... पीड़ा... बाहर की। अन्तर में आत्मा की शुद्ध श्रद्धा, भान अनुभव किया है तो कहते हैं कि उस आनन्द में गटागटी करते हैं। उस आत्मा के शुद्धोपयोग की दृष्टि के कारण अतीन्द्रिय आनन्द नरक में (भी) लेते हैं और अज्ञानी ऐसे महल में बैठा हो लगे कि सुखी है (परन्तु) अकेली आकुलता में दुःखी है। समझ में आया?
कर्मों का क्षय होता है और मोक्षमार्ग प्राप्त होता है। लो, उसे - तिर्यञ्च को शुद्धोपयोग में कर्मों का क्षय होता जाता है, हाँ! मोक्षमार्ग प्राप्त करता है, मोक्षमार्ग बराबर शुद्ध होता जाता है। शुद्धोपयोग में स्थिरता की शक्ति न होने से ज्ञानी जीव शुभोपयोग