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योगसार प्रवचन (भाग-२)
स्वयं चारित्रस्वरूप त्रिकाल है, उसमें एकाकार होने पर राग-द्वेष और विकल्परहित जो स्थिरता की शान्ति प्रगट होती है, उसे भगवान सामायिक कहते हैं । आहा...हा... ! यह सामायिक कहो, या समाधि कहो। समझ में आया ?
अपने उसमें आया था न ? भाई ! (नियमसार में) परम समाधि अधिकार आया न ! और परम समाधि के अधिकार में सामायिक आयी । 'इदि केवलिसासणे' 'इदि केवलिसासणे' यह सब गाथाएँ परम समाधि अधिकार में ही आयी है। समझ में आया ? परम समाधि अधिकार में सामायिक की बात आयी थी । बहुत गाथाएँ सामायिक की आयी। वह तो अब पूरा हुआ, अब दोपहर में तो भक्ति अधिकार चलता है।
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कहते हैं, भगवान आत्मा अपने स्वरूप से विपरीत – ऐसे राग के विकल्पों को, वासना को छोड़कर, भगवान आत्मा का आश्रय- अवलम्बन लेकर अन्तर में जो शान्ति प्रगट होती है, तब कुछ आनन्द का अनुभव करता है... तब अतीन्द्रिय आनन्द थोड़ा (आया) । यहाँ तो थोड़े की बात है । कवि साणंदु 'कवि' अर्थात् कोई आनन्द अर्थात् किसी प्रकार का अलग आनन्द, ऐसा । संसार का जो आनन्द है, वह तो दुःखरूप है। वह आनन्द, अतीन्द्रिय आनन्द ! आहा... हा... !
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'आशा औरन की क्या कीजै, ज्ञान सुधारस पीजै.... आशा औरन की क्या कीजै,
भटकत द्वार-द्वार लोकन के कूंकर आशाधारी,
आतम अनुभव रस के रसिया, उतरे न कबहूं खुमारी,
आशा औरन की क्या कीजै,
भटकत द्वार-द्वार लोकन के कूंकर आशाधारी, 'कुत्ता होता है न कुत्ता ! जहाँ-तहाँ बटकु... बटकु दे। बटकु समझे ? टुकड़ा... टुकड़ा... टुकड़ा । टुकड़े के लिए... इसी प्रकार यह अज्ञानी जहाँ-तहाँ मुझे कुछ सुख दो न, स्त्री का पैसे का, धूल का... कुत्ते की तरह जहाँ-तहाँ भटकता है। कुछ पैसे में सुख, कुछ धूल में, कुछ इज्जत में, कुछ कीर्ति में, कुछ लड़कों में, कुछ शरीर में, कुछ सुन्दरता में... आहा...हा...!' भटकत द्वार-द्वार